________________ (3) पुण्यानुबन्धी पाप - अशाता वेदनीयादि पाप के उदय में भी जीव धर्म-साधना करने पर पुण्य बांधता है, अतः वह अशातादि पाप पुण्यानुबन्धी हुआ / (4) पापानुबन्धी पाप - इससे विपरीत, अशातादि पापोदय होने पर भी हिंसादि पाप करता है तब पापकर्म बांधता है / यह पाप पापानुबन्धी कहा जाता है / ऐसे संयोग की उपस्थिति में सावधान रहना है कि कलंकित पुण्य का यानी पापानुबंधी पुण्य (शुभ कर्म) का उपार्जन न किया जाए / इसीलिए यह सावधानी रखनी है कि दानादि समस्त धर्म केवल आत्म-कल्याण, जिनाज्ञा-पालन, कर्म-क्षय, भव-निस्तार और आत्म-शुद्धि के लिए ही किया जाए किन्तु विषयसुख के लिए नहीं / ध्रुवबन्धी : ज्ञानावरणादि कुछ पापकर्म ऐसे है कि यद्यपि महायोगी-अवस्था तक पहुँचने पर भी अर्थात् शुभ भाव में रहने पर भी, उनका बंध होता ही रहता है / अतः उन्हें ध्रुवबंधी कहते हैं / तो प्रश्न होगा कि यहाँ शुभभाव का प्रभाव? उत्तर है- प्रभाव यह है कि शुभभाव की वजह से इन अशुभ कर्मो की स्थिति और रस-बंध बहुत मंद होता हैं / इसके विपरीत, अशुभ भाव की अवस्था में (1) ध्रुवबन्धी शुभ कर्म का बंध तो होता ही हैं, किन्तु उसका रस अतीव मंद बंधा जाता है / (2) ध्रुवबंधी अशुभ कर्म के स्थिति-रस अधिक तीव्र 500 1358