________________ १बन्धे जाते है / ध्रुवबन्धी अर्थात्-जिनके योग्य गुणस्थानक तक सतत बन्ध होता ही रहता है / ये 47 हैं - 5 ज्ञानावरण, 9 दर्शनावरण, 5 अंतराय, 1 मिथ्यात्व, 16 कषाय, भय, जुगुप्सा, वर्णादि, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, व उपघात ये ध्रुवबन्धी है / (18) निर्जरा-तत्त्व 'निर्जरा' का अर्थ है कर्म का स्वतः या उपाय द्वारा अतीव जर्जरित हो जाना, यानी कालस्थिति पककर आत्मा से अलग हो जाना / जैसे, आम स्वतः या किसी उपाय द्वारा पकता है, वैसे कर्मो का भी होता है / स्वतः झड़ (अलग हो) जाना 'अकाम निर्जरा' कहलाता है, और उपाय द्वारा झड़ जाना यह 'सकाम निर्जरा' कहलाता है | आए हुए दुःखको अकामना (अनिच्छा) से भोगते हुए कर्म का झड़ जाना 'अकाम निर्जरा' है / (i) कर्मक्षय की कामना से पीडा को सहर्ष करने द्वारा अथवा (ii) तप द्वारा कर्म का झड़ जाना 'सकाम निर्जरा' है / कर्म की अपनी कालस्थिति परिपक्व होने पर कर्म उदय में आकर मुक्त होना एवं कर्म का झड़ जाना 'स्वतः निर्जरा' है। एवं तप के द्वारा कर्मका नाश करना यह 'उपाय-निर्जरा' है। 2 1368