________________ प्रंशसा प्राप्त करता है / अपयश इससे विपरीत / 42 पुण्यप्रकृति : सामान्यतः पुण्य-कर्म उन्हें कहा जाता है जो शुभ चित्त-परिणाम से बंधेजाते है और शुभरस से भोगे जाते है / फक्त, चार अघाती कर्मो में से 42 पुण्य प्रकृतियाँ हैं, घाती में से नहीं / (1.) शाता वेदनीय - (२.से 4) नरकायु को छोडकर तीन आयुष्य, (5.) उच्च गोत्र, (6. से 42.) नाम-कर्म की शुभ 37 प्रकृतियाँ / तिर्यंच को भी अपना आयुष्य प्राप्त होने के बाद उसे स्थिर रखना अच्छा लगता है, मरना अच्छा प्रतीत नहीं होता / अतः तिर्यंच आयु को पुण्य के अंतर्गत माना है / किन्तु उसे तिर्यंच गति रुचिकर नहीं होती है, अतः यह पाप प्रकृति है / नारक को मरना अच्छा लगता है / अतः नरकायु पुण्य में समाविष्ट नहीं / नामकर्म की 37 शुभ प्रकृतियों में, - देव व मनुष्य की गति और आनुपूर्वी 4 + 1. पंचेन्द्रिय जाति + 5 शरीर + 3 अंगोपांग + 2 प्रथम-संघयण और संस्थान + 4 शुभ वर्णादि + 1 शुभ विहायोगति + उपघात को छोडकर 7 प्रत्येक प्रकृति + 10 त्रस-दशक = 37 / 82 पापप्रकृति : पाप-प्रकृति कौन? संक्लिष्ट अध्यवसाय से बध्यमान हो और जिसका अशुभ रस से भोग किया जाता हो, उसे पापप्रकृति कहते 0 1280