________________ व 5. वीर्यान्तराय कर्म / ये क्रमशः दान करने में, लाभ होने में, एक बार ही भोग्य अन्नादि के भोग में, बार बार भोग्य वस्त्र, अलंकार आदि के भोग में, और आत्मवीर्य के प्रगट होने में विघ्नकारक हैं। ये ज्ञानावरणीयादि चार कर्म घाती कर्म हैं, शेष चार अघाती कर्म 4 अघाती कर्म में : (5) वेदनीय कर्म 2 :- (1) शाता वेदनीय (2) अशाता० / जिस के उदय से आरोग्य, विषयोपभोग आदि से सुख का अनुभव हो, वह शाता / इस से विपरीत है अशाता / __(6) आयुष्य कर्म 4 :- (i) नरकायु, (ii) तिर्यंचायु, (iii) मनुष्यायु और (iv) देवायु / नरकादि भवों में जीव को उस उस समय तक जकडकर रखनेवाला कर्म है 'आयुष्य-कर्म'। वह जीव को अपने-अपने भव में जीवित रखता है / (7) गोत्रकर्म 2 :- (1) उच्चगोत्र (2) नीचगोत्र / जिसके उदय से ऐश्वर्य, सत्कार, सन्मान आदि के स्थान रूप उत्तम जाति, कुल, प्राप्त हो वह उच्चगोत्र / इससे विपरीत नीचगोत्र / (8) नामकर्मः- इसके 67 भेद हैं:- गति 4 + जाति 5 + शरीर 5 + अंगोपांग 3 + संघयण 6 + संस्थान 6 + वर्णादि 4 + आनुपूर्वी 4 + विहायोगति 2 = 39 पिंड प्रकृति / 11988