________________ दृष्टि से वह महाप्रमादी है / ये आठ प्रकार के अन्य प्रमाद भी जैन धर्म बताते है-यथा राग, द्वेष, अज्ञान, संशय, भ्रम, विस्मरण, योग-दुष्प्रणिधान (असत्प्रयोग) व धर्म में अनादर-अनुत्साह / जैनदृष्टि से सर्वविरतिधर मुनि बनने पर भी जहाँ तक उपरोक्त प्रमाद से युक्त है वहाँ तक वह प्रमत्त मुनि है / प्रमाद हटाने पर वह अप्रमत्त मुनि बनता है / नवतत्त्व प्रकरण की दृष्टि से इन्द्रिय, अव्रत, कषाय, योग और प्रमाद, ये पांच आश्रव है / इनका मिथ्यात्वादि पांच आश्रवों में समावेश हो जाता है / अतः तत्त्व की भिन्नता नही है, जैसे कि इन्द्रिय व अव्रत का समावेश अविरति में होता है / वहाँ इन्द्रियों की आसक्ति यही अविरति है, चूंकि बारह प्रकार की अविरति में हिंसादि पांच पाप एवं रात्रि भोजन इन छ: की अविरति जो आती है, यह तो इन हिंसादि पापों का प्रतिज्ञाबद्ध त्याग नहीं होना यह है; किन्तु पांच इन्द्रिय एवं मन ये छ: के सम्बन्ध में इनकी आसक्ति यही अविरति है / इन्द्रियों को इनके इष्ट विषयो में मस्त होने देना यह क्या है? आत्मा में तुरन्त कर्मबन्ध होना; वास्ते यह आश्रव है / जैसे, श्रोत्रेन्द्रिय शब्द संगीत में खुश हो, चक्षु परस्त्री के दर्शन में लीन बनें, जीभ मधुर रस में खुश हो, नासिका पुष्प, अत्तर आदि की सुगंधी में तुष्ट