________________ पथिकत्रयदृष्टान्तेन करणत्रययोजना ग्रन्थिरिति सुदुर्भेदः, कर्कशघनरूढगूढग्रन्थिरिव / जीवस्य कर्मजनितो, घनरागद्वेषपरिणामः // 1195 // भिन्ने तस्मिन् लाभः, सम्यक्त्वादीनां मोक्षहेतूनाम् / स एव दुर्लभः परिश्रम-चित्तविघातादिविजैः // 1196 // यावद् ग्रन्थिस्तावत् प्रथम, ग्रन्थि समतिक्रामतो भवेद् द्वितीयम् / अनिवृत्तिकरणं पुनः, पुरस्कृतसम्यक्त्वे जीवे // 1203 // ] अथवा पथिकत्रयदृष्टान्तेन करणत्रययोजना यथा - "जह वा तिण्णि मणूसा, जंतडविपहं सहावगमणेणं / वेलाइक्कमभीआ, तुरंति पत्ता य दो चोरा // 1211 // दटुं मग्गतडत्थे, तत्थेगो मग्गओ पडिनियत्तो / बीओ गहिओ तइओ, समइक्वंतो पुरं पत्तो // 1212 // अडवी भवो मणूसा, जीवा कम्मट्टिई पहो दीहो / गंठी अभयट्ठाणं, रागद्दोसा य दो चोरा // 1213 // भग्गो ठिइपरिवुड्डी, गहिओ पुण गंठिओ गओ तइओ / सम्मत्तपुरं एवं, जोइज्जा तिन्नि करणाइं // 1214 // " (विशेषावश्यकभाष्यम् ) [ छाया - यथा वा त्रयो मनुष्याः, यान्तोऽटवीपन्थानं स्वभावगमनेन / वेलातिक्रमभीताः, त्वरन्ते प्राप्तौ च द्वौ चौरौ // 1211 // दृष्ट्वा मार्गपार्श्वस्थौ, तत्रैकः पृष्ठतः प्रतिनिवृत्तः / द्वितीयो गृहीतस्तृतीयः, समतिक्रान्तः पुरं प्राप्तः // 1212 // अटवी भवो मनुष्या, जीवाः कर्मस्थितिः पन्था दीर्घः / ग्रन्थिश्च भयस्थानं, रागद्वेषौ च द्वौ चौरौ // 1213 // 1. विशेषावश्यकभाष्ये तु 'भयत्थाणं' इति पाठः /