________________ 150 श्रीयतिदिनचर्या अवचूर्णियुता अशनादि गृहीत्वा पश्चात् कं विधि तनुते इत्याशङ्क्याह - इय विहरिय वसहि गओ इरियं आलोअणा य गुरुपुरओ / काउं पेहिय भूमि मुत्तुं भत्ताइ नमइ जिणे // 103 // इति-आगमनिरूपितयुक्त्या विहृत्य-निर्मलपिण्डं गृहीत्वा वसति गतः-उपाश्रयद्वारं प्राप्तः पिण्डादि प्रमाM निषेधिकापुरस्सरं वसतिमध्ये प्रवेशं विधाय ईयाँ प्रतिक्रामति, तदनु गुरुपुरत आलोचनां कृत्वा भूमि-मण्डलीसंस्थानं प्रतिलिख्य तत्र पात्रकाणि मुक्त्वा भक्ताद्यर्थं जिनान् नमति, शक्रस्तवं पठतीत्यर्थः, यदाहुः - "इय समयविहिसुद्धं पिंडं गिण्हित्तु वसइदारंमि / पज्जत्ते परिभाविय पम्मज्ज निसीहिया कुणइ // 1 // सज्जामज्झे पविसिय पडिलेहिय मंडलीय जं ठाणं / वच्चइ य गुरुसयासे इरियावहियं पडिक्कमइ // 2 // काउस्सग्गे चिंतइ कमेण अइयारनिवहमावन्नं / जं भत्तपाणविसयं गमणागमणस्स विसयं च // 3 // पारियकाउस्सग्गो चउवीसथयस्स चिंतणं काउं / गमणागममालोइय अव्वक्खित्तस्स गुरु पुरओ // 4 // उज्जुपन्नो अणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेयसा / आलोए गुरुसयासे, जं जहा गहियं भवे // 5 // वक्खित्त 1 पराहुत्ते 2 पमत्ते 3 मा कयाइ आलोए / आहारं च करतं 4 नीहारं वा 5 जइ करेड् // 6 // अव्वक्खित्ताउत्तो उ, संतबुद्धिनाऊणंति जाणिया / अणुन्नवित्तु मेहावी, आलोइज्ज जयं जई // 7 // जं किंचि दुरालोइयमणेसणिज्जं भवेज्ज भत्ताई / तप्पडिक्कमणनिमित्तं उस्सग्गं कुणइ इय विहिणा // 8 //