________________ 178 श्रीयतिदिनचर्या अवचूर्णियुता 14 // 85 // अथ पञ्चदशं वक्ति-पञ्चदशं अनिसृष्टं स्यात् यत्र बहुसन्तिकंअनेकसत्कं बहूनां वस्तु बहुभिरदत्तमननुमतं वा तेषां मध्यादेकेन दत्तं तत्, यदाहुः"दुण्हं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए / दिज्जमाणं न इच्छिज्जा जं तत्थेसणियं भवे // 1 // " 15 / अथ षोडशमध्यवपूरकाख्यं, यत्र यावदर्थिनो याचकाः साधवो मुनयो वा सतीथिकाश्च तदर्थं स्थाल्यामवतारयति प्रक्षिपति पश्चात् तत्, अयमर्थो-निजार्थं स्थाल्यां धान्यं प्रक्षिप्य पश्चात् साधुनिमित्तं तदुपरि क्षेपः 16 // 86 // एते षोडशोद्गमदोषाः गृहस्थाश्रिता उक्ताः, सम्प्रति उत्पादनायाः षोडश दोषान् गाथापञ्चकेनाह - धाइयइयकम्मं मुणी निमित्तं च कुणइ भिक्खट्टा / आजीवी कुलसिप्पाइं परेसु अप्पा तहा कहितो // 87 // विप्पाईणं भत्तेसु तस्सरिसं पयडंतु जं गिण्हे / वणिमगपिंडो ओसहकरणेण तिगिच्छपिंडो उ // 8 // कोहो तप्फलकहणं माणो सेहुव्व लद्धितुतिकरणं / मायाइ विविहवेसो लोभो भिक्खट्ट बहु भमणं // 89 // पुट्विं पियाइ ससुराइ पच्छिमं कुणइ सरिससंबंधं / जो सो संथवपिंडो विज्जाइपउंजणे पंच // 10 // विज्जा जवाइसज्झा मंतो एमेव अंजणाइ पुण चुन्नं / जोगो लेवाइकम्मं मूलकम्मं तु रक्खाई // 11 //