________________ 110 श्रीयतिदिनचर्या अवचूर्णियुता जिणनमणमुणिनमंसण पुव्वं तत्तो कुणेइ सज्झायं / चितंति पुव्वगहियं तवनियमाभिग्गहप्पमुहं // 4 // " // 5 // ततः स्वाध्यायकरणे फलं किमित्याशङ्क्याह - कम्ममसंखिज्जभवं खवेइ अणुसमयमेव उवउत्तो / अन्नयरंमिवि जोगे सज्झायमि य विसेसेणं // 6 // प्राणी असङ्ख्यातभवं कर्म-असङ्ख्यातभवनिबद्धं कर्म अनुसमयमेव प्रतिसमयमेव उद्युक्तो-धर्मक्रियासूद्यमवान् क्षपयतिनिराकरोति, क्व ?-अन्यतरस्मिन्नपि धर्मयोगे-इतरस्मिन् पुण्ययोगे, स्वाध्याये च उद्युक्तो विशेषेण कर्म क्षपयत्येव, यदाहुः - "जामिणिविरामसमए सरए सलिलव्व निम्मलं नाणं / इय तत्थ धम्मकम्मे आयमुवायं विचिंतिज्जा // 1 // " // 6 // ततोऽपि साधुः कां क्रियां कुरुते तदाह - धम्मीणं जागरिया पुणो अहम्मीण सुत्तया सेया / तो तह भणइ महप्पा जह पावजिया न जग्गंति // 7 // तत्र निशाविरामे धर्मिणां-धर्मात्मनां जागरिका-निद्रात्यागरूपा श्रेयसी, यतो धर्मिणां जाग्रतां गरीयान् लाभः, आह च - "जागरह नरा निच्चं जागरमाणस्स वखए बुद्धी / जो सुवइ सो न धन्नो जो जग्गइ सो सया धन्नो // 1 // " किञ्च"सीयंति सुवंताणं अत्था पुरिसाण लोगऽसारित्था / तम्हा जागरमाणा विहुणह पोराणयं कम्मं // 2 // 1. मूले - उवउत्तो।