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________________ नैषधीयचरिते देख सका, अन्यथा उसके असतीत्व से क्रुद्ध हो उसे त्याग देता। न देखने के कारण दो हैं-आँखों का बाष्पावृतत्व और इन्द्राणी का पूर्व जन्म का कोई पुण्य / इस तरह यहाँ काव्यलिङ्ग एवं नल के प्रति प्रमिलाषोदय में मावोदयालंकार है। शब्दालंकारों में 'दार' 'दार', 'लोम' 'लोम', 'लोक' 'ठोक' में यमक, 'पाल:' 'मालः' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास तथा अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। सापीश्वरे शृण्वति तद्गुणोघान प्रसह्य चेतो हरतोऽर्धशम्भुः / मभूदपणोङ्गुलिरुद्धकणो कदा न कण्डूयनकैतवेन // 29 // अन्वयः-श्वरे प्रसय चेतः हरतः तद्गुणौघान् ऋण्वति सति सा अर्ध-शम्भुः अपर्णा अपि कण्डूयन-कैतवेन अलि -रुद्ध-कर्षा कदा न अभूत् / टीका-ईश्वरे शिवे प्रप्त बलात् चेतः मनः हरतः आकर्णतः तस्य नलस्य गुणानां सौन्दयौंदाबांदीनाम् ओषान् समूहान् ( सर्वत्र प० तत्पु० ) मृण्वति आकर्णयति सति, सा सतीत्वेन प्रसिद्धा अर्ध शरीरस्यार्धमागः शम्भुः शिवो यस्यास्तथाभूता (ब० वी० ) अथवा अर्ध शम्मोः इत्यर्धशंभुः ( एकदेशी समास ) अपर्णा पार्वती अपि परपुरुषगुणाकर्णन सत्य निषिद्धमिति कृत्वा, अर्ध-रूपेण पतिदेहाभिन्नत्वादन्यत्र गमनासम्भवात् कण्डूयनस्य खर्जनस्य कैतवेन ब्याजेन (10 तत्पु० ) अडगुल्या कर-शाख्या रुद्धौ पिहितौ 40 तत्पु.) कौँ श्रोत्रे (कर्मधा० ) यया तथाभृता (ब० वी० ) कदा करिमन् काले न अभूत जाता, सर्वदैव अडगुटरुद्धकर्णाऽभवादात काकुः। मा मूत् परपुरुषप्रशंसाभवणमिति पार्वती स्वकाँ पिहितवतीत्यर्थः // 29 // व्याकरण-ईश्वरः इष्टे इति ईश्+वरच् / कण्डूयनम् कण्डू+यक्+ल्युट ( भावे ) / भनवाद-महादेव नब मन हरण कर देने वाला नल का गुप्प-समूह सुन रहे थे, तो वह (प्रसिद्ध सती ), महादेव का अर्धशरीर-रूप पार्वती मी खुजलाने के बहाने कब कानों को बंद किये नहीं रहती थी? टिप्पणी-जहाँ इन्द्राणी सतीत्व आदर्श से हमने फिसली देखी है, वहाँ पार्वती को स्थिर पाया है, क्योंकि वह अपर्णा है, जिसने शम्भु-प्राप्ति हेतु तपस्या में पत्ते तक खाने छोड़ दिए थे। वह मला कैसे फिसलती? यहाँ अपर्णा शब्द के साभिप्राय होने से परिकराकुर अलकार है। 'कण्डूयन कैतवेन' में कैदवापद्धति है। शब्दालंकारों में 'पर्णा' 'कर्णा' में पदान्तगत अन्त्यानुाप्रास और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। अलं सजन् धर्मविधौ विधाता रुणद्धि मौनस्य मिषेण वाणीम् / तत्कण्ठमालिङ्गय रसस्य तृप्तां न वेद तां वेदजडः स वक्राम् // 30 // अन्वयः-धर्म-विषौ सजन् विधाता मौनस्य भिषेण अलम् वाणीम् रुपद्धि, किन्तु ) वेद-जडःस वरकण्ठम् मालिङ्गय रसस्य तृप्ताम् वक्राम् ताम् न वेद / ____टीका-धर्मस्य सन्ध्यादि-कर्मप्पः विधौ अनुष्ठानं ( 10 तत्पु० ) सजन् लगन् विधाता ब्रह्मा मौनस्य अनालाप-व्रतस्य मिषेण व्याजेन अलम् अत्यर्थ वाणों वाचम् अथ च वाग्देवीम् रुणद्धि रुन्धे मा तावत् सरस्वती नलगुपश्रवणं काषीत् इति तस्याः कृते मुखरूपं बहिद्वारं पिनद्धीत्यर्थः ( किन्तु) वेदेन
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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