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________________ तृतीयसर्गः वेदपाठेन जडो नडीमूतो नित्यवेदाभ्यास-निरतत्वेन अनमिश इति यावत् (तृ० तत्प०) समा तस्था नलस्य कण्ठं गलम् ( 10 तत्पु० ) आलिङ्गय आश्लिष्य रसस्य नलानुरागेष अथ च भारादिरसेन तृप्ता सन्तुष्टाम् अथ च पृष्टाम् वक्राम् , कुटिलाम् अथ च वक्रोक्तिपूर्ण तां सरस्वती न वेदन बानाति / वृद्धो रसमावरहितश्च ब्रह्मा युवत्याः स्वपरम्याः स्वच्छन्दाचारं न जानातोति मावः / / 30 // व्याकरण--सजन VA+शत् / विधिः वि+Vधा+कि (विधानम् ) / रसस्व तप्ताम् ( 'नाग्निस्तृप्यति क'ठानाम्' इतिवत् ) सम्बन्ध-सामान्येयं षष्ठी। वेद विद्+कट 'विदो लटो वा' 3483 से लट् को णमुल् / अनवाद-धर्म कर्म में लगा हुआ ब्रह्मा मौन के बहाने (निजपत्नी] वाग्देवी को अच्छी तरह से रोक देता है, (किन्तु ) वेद ( पड़ते रहने ) से जड़ बना हुआ वह नहीं जानता है कि वक्र ( कुटिल; वक्रोक्तिपूर्ण) वह नल के गले से लगकर रस ( उसके अनुरागः तारादि) से तृप्त हुए बैठो है // 30 // टिप्पणी-यहाँ सरस्वतो सतीत्व का दिवाला ही पोट देती है। बूढ़े पति ने उसे बाहर का द्वार बन्द करके मोतर ही रोक दिया, पर वह कुटिल पीछे के चोर दरवाजे से निकलकर कर से ना को गरे लगाकर उसके रस ( अनुराग, शृंगार) का आनन्द ले रहो है-यह बहे को पता हो नहीं। वास्तव में यह कवि का कौशल हो समझिए कि वह ब्रह्मा को पत्नो सरस्वती देवी और सबके गळे में काम कर रहो वागारमक सरसतो का भिन्न-भिन्न होते हुए मो अमेहास्यवसाय कर बैठा, जिससे सरस्वती देवी बदनाम हो गई। तात्पर्य यह कि नल के कण्ठ में लगी वाणो वतियों -काव्यमय वचनों-तथा शृंगारादि रसों से परिपूर्ण रहतो हैं। इस कारण हम यहाँ मेदे अमेहातिशयोति हो मानेंगे, जिसके साथ बाह्नति का सांकर्य है। वका और रस शब्दों में रहेष है। विद्याधर ने जड़ वाणी पर चेतनव्यवहार-समारोप मानकर यहाँ समासोक्ति कहो है। शब्दालंकारों में 'वेद' 'वेद' में बमक, 'विधौ' 'विधा' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। श्रियस्तदालिङ्गनभूनं भूता व्रतक्षतिः कापि पतिव्रतायाः / समस्तभूतात्मतया न भूतं तद्भर्तुरीयाकलुषाऽणुनापि // 3 // प्रत्ययः-पतिव्रतायाः श्रियः तद्भर्तुः समस्त-भूतात्मतया तहालिगनः का अपि व्रतक्षतिः न भूता: ( अतएव तद्भर्तुः ) ईर्ष्या-कषाणुना अपि न भूतम् / ___टोका-पतिवतायाः सत्याः श्रियः लक्ष्मीदेव्या अय च कान्त्याः तस्या श्रियाः मर्नुः परपुः विष्योरि. त्यथः (10 तत्पु०) समस्तानि सर्वाणि तानि भूतानि. प्राणि नातम् ( कर्मवा० ) प्रारमा स्वरूपम् (कर्मधा० ) यस्य तयाभूतस्य (ब० नो०) मावस्तत्तया प्रापिमात्रस्य 'सर्व विष्णुनयं जगर' इति विष्णुपुराणोक्त्या विष्णुपयत्वेनेत्यर्थः तस्य नलस्य आलिजनात् आश्लेषात् (प० तत्पु०) मरतोति तयोका ( उपपद तत्पु०) का अपि काचिदपि व्रतस्य पातिव्रत्यस्य मतिः हानिः (10 तत्पु०) न भूता न जाता, नहस्यापि विष्णुरूपत्वात् सा विष्णुमेवामिति, न तु पर-पुरुषम् : अतएव तदू-भर्तुः लियोः ईवा अक्षान्त्या या कनुषं काश्यम् ( तृ० तत्प० ) काशमोना
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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