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________________ नैषधीयचरिते अन्न के अनुरूप रूप-समृद्धि प्राप्त करते हैं। कारण यह है कि कार्य समवायिकारण से गुणों को देता है // 17 // टिप्पणी-यहाँ कवि न्यायशास्त्र की ओर संकेत कर रहा है। 'कारण-गुणाः कार्यगुणान् बारमन्ते' इस न्याय के अनुसार समवायिकारण के गुण कार्य में गुष्प उत्पन्न करते हैं। तन्तु यदि लाल हैं तो वे कपड़े में लाल गुण ही उत्पन्न करेंगे। "हमारे शरीरनिर्मापक तत्व स्वपिल कमलों के स्वर्षिल नाल और मृपाल हैं इसलिए हमारा शरीर मी स्वर्णिल है।" ध्यान रहे कि नालकमलों के काण्ड अथवा दण्ड को और मृणाल उनके तन्तुमय कन्द को कहते हैं / यहाँ पूर्व के तीन पादों में कही गई विशेष बात का चौथे पाद में कही गई सामान्य बात से समर्थ किये जाने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है। शब्दालकारों में 'मृणालि' 'मृणाला', 'भुजा' 'मजा' तथा 'रूप' 'रूप' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। धातुर्नियोगादिह नैषधीयं लीलासरस्सेवितुमागतेपु। हैमेषु हंसेष्वहमेक एव भ्रमामि भूलोकविलोकनोरकः // 18 // अन्वयः-(हे भैमि, ) विधेः नियोगात् इह नैषधीयम् लीला-सरः सेवितुम् आगतेषु हैमेषु हंसेषु अहम् एक एब भूलोक-विलोकनोत्कः सन् भ्रमामि / / टीका-(हे भैमि,) विधेः विधातुः नियोगात् आदेशात् इह भूलोके नैषधोयम् नैषधसम्बन्धि नलस्येत्यर्थः लीलार्थ सरः इति लीला-सरः (च० तत्पु० ) सेवितुम् अवगाहितुं तत्र विहर्तुमित्यर्थः आगतेषु समागतेषु हैमेषु हेम्नो विकारेषु स्वर्णलेष्वित्यर्थः हंसेषु मरालेषु अहम् एकः केवल एव भूश्चासौ लोकः ( कर्मधा० ) तस्य विलोकने दर्शने (10 तत्पु० ) उत्क उस्कण्ठितः ( स० तत्पु० ) सन् भ्रमामि, भुवि भ्रमपं कुर्वन् प्रसङ्गवशात् अत्राप्यागतोऽस्मोति मावः / / 18 / / __व्याकरण-नैषधीयम् निषधानामयमिति निषध+अण = नैषधः ( नलः ) तस्येदमिति नैषध+ छ, छ को ईय। हैमेषु हेम्नः विकारेष्विति हेमन् + अण् (विकाराथें ) टिलोप / उत्कः 'उत्क उन्मनाः' 5 / 2 80 से उत्+कन् ( स्वार्थ ) / उतू शब्द यहाँ 'उद्गतमनस्क' अर्थ में है। अनुवाद-(हे भैमी, ) ब्रह्मा के आदेश से इस भूलोक में नल के क्रीडा-सर के सेवन हेतु आए हुए स्वपिल हंसों में से मैं ही केवल एक भूलोक देखने के लिए उत्सुक हुआ घूम रहा हूँ॥१८ / / / टिप्पणी-यहाँ मूलोक आने तथा भ्रमण का कारण बताने से काव्यलिङ्ग अलङ्कार है / 'लोक' "लोक में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। विधेः कदाचिद् भ्रमणीविलासे श्रमातुरेभ्यः स्वमहत्तरेभ्यः। स्कन्धस्य विश्रान्तिमदां तदादि श्रास्यामि नाविश्रमविश्वगोऽपि // 19 // अन्वयः-कदाचित् विधेः भ्रमप्पी-विलासे अमातुरेभ्यः स्वमहत्तरेभ्यः ( अहम् ) स्कन्धस्य विभान्तिम अदाम् , तदादि अविश्रम-विश्वगः अपि न पाम्यामि / ___टीका-कदाचित् कस्मिंश्चित् समये विधेः ब्रह्मयः भ्रमण्या संसार-भ्रमणस्य विलासे लोलायाम् विनोदे इति यावत् (प० तत्पु.) अमेण क्रुमेन आतुरेभ्यः खिन्नेभ्यः ( तृ० तत्पु०) स्वाः स्वकीया
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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