SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयसर्गः टिप्पणी-यहाँ सखियों की आँखों की तुलना योगियों के मनों से, तथा हंस की तुलना ब्रह्म से की गई है, अतः उपमा है. जो श्लेषानुप्राणित है। यद्यपि उपमेय हंस और उपमान ब्रह्म के मित्रमिन्न लिंग होने से अलंकारगत दोष है तथापि दण्डो के इस कथन के अनुसार कि-'न लिा-बचने मिन्ने, न होनाविकतापि वा। उपमादूषणाय'लं यत्रोद्वेगो ने धीमताम्' / / वह दोषकोटि से बाहर जाता है। शब्दालंकार वृत्यनुप्रास है। हंसं तनो सन्निहितं चरन्तं मुनेमनोवृत्तिरिव स्विकायाम् / ग्रहीतुकामादरिणा शयेन यत्नादसौ निश्चलतां जगाहे // 4 // अन्वयः-असौ मुनेः मनोवृत्तिः इव स्विकायाम् तनौ सन्निहितम् चरन्तम् हंसम् अदरिणा (आदरिणा च ) शयेन ( प्राशयेन च ) ग्रहीतुकामा यत्नात् निश्चलताम् जगाहे / टीका-असौ दमयन्ती मुने योगिनः मनसो वृत्तिः व्यापारः ( 10 तत्पु०) इव स्विकायां स्वकीयायां तनौ अत्र षष्ठयथें सप्तमी शया) शरीरस्य सन्निहितम् समीपस्थम् अथ च तनो शरीरे शरोभ्यन्तरे इत्यर्थः सन्निहित स्थितं चरन्तं गच्छतम् अथ च वर्तमानं हंसं स्वर्णहंसम् अथ च परमात्मानम् ( 'हंसो विहङ्गमेदे च परमात्मनि मत्सरः' इति विश्वः ) अदरिणा दरो भयम् ('दरोऽस्त्रियां भये श्वभ्रे' इत्यमरः ) अस्यास्तीति दरी न दरी इत्यदरी तेन ( नञ् तत्पु० ) निर्भयेनेत्यर्थः शयेन पापिना ( 'पञ्चशाखः शयः पाणिः' इत्यमरः) अथ च आदरिया श्रादरवता आशयेन हृदयेन ग्रहीतुं वशीकर्तुम् अथ च साक्षात्कर्तुम् काम इच्छा यस्य तथाभूता (ब० वी० ) सती यत्नात् प्रयत्नपूर्वकं निश्चलता शरीरे निश्चेष्टता जगाहे प्राप / यथा योगी शरीरसन्निहितं हतं ( परमात्मानं ) ग्रहीतुं निश्चलो भवति, तथै। दमयन्त्यपि शरीर-सन्निहितं हंसं ( मरालम् ) ग्रहीतुं निश्चलीमतेति मावः / / 4 // व्याकरण-स्विकायाम् स्वा एव स्त्रकेति स्व+कः ( स्वाथें ) इत्वम् ( •प्रत्यययस्थात्क'सूर्वस्यात-' 6 3 / 44 ) / ग्रहीतुकामा 'तुं काम-मनसोरपि' से मलोप / अनुवाद-अपने शरीर के भीतर वर्तमान हंस (परमात्मा ) को आदरी (मादरपूर्ण ) आशय ( हृदय ) से ग्रहण ( प्रत्यक्ष ) करने हेतु प्रयत्न-पूर्वक निश्चल बनी योगी की मनोवृत्ति की तरह वह ( दमयन्ती) अपने शरीर के समीप हो जा रहे हंस ( मराल ) को अदरी (निर्भय ) शव ( हाथ ) से ग्रहण ( पकड़ने ) हेतु प्रयत्न-पूर्वक निश्चल हो गई // 4 // टिप्पणी-यहाँ दमयन्ती की योगी की मनोवृत्ति तथा हंस की हंस ( परमात्मा ) से तुलना को गई है, अतः उपमा है, जो श्लेषानुपाणित है। श्लेष मी 'एकवृन्तगतफलस्य-न्याय से कहीं तो अभंग है और कहीं जितु-काष्ठ' न्याय से सभंग है। 'मुने' 'मनो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। तामिङ्गितैरप्यनुमाय मायामयं न धैर्याद् वियदुत्पपात / तस्पाणिमास्मोपरिपातुक तु मोघं वितेने प्लुतिलाघवेन // 5 // अन्वयः-अयम् ( तस्याः ) ताम् मायाम् इङ्गितैः अनुमाय अपि धैर्यात् वियत् न उत्पपात: तु भारमोपरि-पातुकम् तत् पाणिम् प्लुति-लाघवेन मोषम् वितेने /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy