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________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-नो (नगरी ) परकोटे की खाई के घेरे के बहाने गोलाकार पंक्ति के बीच में रखी हुई, दूसरों के ग्रहण (आक्रमण; शान ) का विषय न होती हुई पतजलि-प्रपीत ( महा-) माष्य को विषम फकिका है // 15 // टिप्पणी-पतम्जलि ने पाणिनि-मत्रों पर जो महामाष्य लिखा है, उसके बीच कितने ही ऐसे स्बल, जिन्हें महामाष्यकार के सिवा और कोई समझ ही नहीं सकता है, उनपर गोलाकार पक्ति खीची हुई है। उन्हें फक्किका कहते हैं। इस सम्बन्ध में विद्याधर ने यह बात लिखी है"आदी माध्यं प्राप्य वक्तुकामेन शेषनागेन शिष्येण सह संकेतः कृतः यत् माष्यं ब्याख्यायमानमपि विषमत्वात् या फक्किका स्वया न बुध्यते, सा फक्किका व्याघुटय स्वया न प्रष्टव्या। शिष्येण च तथाङ्गी. कृतम् / ततो व्याख्याता अपि शिष्येण न शातास्ताः कुण्डलिताः / इदानीमपि तास्तथाविधा लिख्यन्ते / परं कस्यापि मनोगोचरा न मवन्तीति वार्ता' / __ यहाँ कहीं 'फक्किका-विषमा' पाठ मिलता है, तो कहीं'.फक्किका विषमा' / नारायण आदि समस्त पाठ मानकर 'फक्किकावत विषमा' व्याख्या करते हैं और उपमा मानते हैं / जब कि मल्लि. 'विषमा' को व्यस्त मानकर फणिभाषित-फक्किका=पतन्जलि-प्रणीत-महाभाष्यस्थ कुण्डलिग्रन्थः यों रूपक मानकर मी फिर 'तद्वदिति शेषः' लिखकर उपमा में चले गए हैं, किन्तु साथ ही 'त्र नगर्याः कुण्डहिग्रन्यस्वेनोत्प्रेक्षा' भी कहते हैं। हमारे विचार से नगरी पर .फक्किकात्वारोप से अपनुत्युत्थापित श्लिष्ट रूपक ही होना चाहिए, क्योंकि उपमा में उपमेय की प्रधानता होने से नगरी के साथ 'परिखावलयलेन कुण्डलनामवापिता' विशेषण संगत नहीं होता है। शब्दालंकारों में 'माषि' 'माष्य' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। मुखपाणिपदाक्षिण पहजै रचिताङ्गेष्वपरेषु चम्पकैः / स्वयमादित यत्र मीमजा स्मरपूजाकुसुमस्रजः श्रियम् // 96 // अन्वयः-यत्र भीमजा मुख-पाणि-पदाक्षिण पङ्कजैः, अपरेषु अङ्गेषु चम्पकैः रचिता स्मर-पूजाकुसुमनजः श्रियम् स्वयम् आदित। टीका-यत्र नगर्या भीमजा भीमपुत्रो दमयन्तीत्यर्थः मुखं च पाणी हस्तौ च पदे चरणो च अक्षिपो नयने च तेषां समाहारः इति पदाक्षि ( समाहार इन्द्र ) तस्मिन् पङ्कजैः जलजैः अर्थात् मुखे श्वेत कमलेन, पाण्योः चरणयोश्च रक्त-कमलाभ्याम् अक्षणोश्च नीलकमलाभ्यां (रचिता) अपरेषु अन्येषु अङ्गेषु अवयवेषु भुज-स्कन्धादिषु च पीतवर्णत्वात् चम्पकैः पीतपुष्पविशेषः रचिता विनिर्मिता स्मरस्य मदनस्य या पूना अर्चना तस्याः कुसुमानां पुष्पाणां स्रक भाला तस्याः ( सर्वत्र 10 तत्पु०) श्रियं शोमाम् स्वयम् आत्मना एव आदित आत्तवती स्वीकृतवतीत्यर्थः। नगर्यो दमयन्ती स्वयमेव कामदेवपूजानिमित्तं विविध-पुष्पविनिर्मित-मालायते स्म, तां तदवयवांश्च दृष्ट्वा काम उद्दीप्यते स्मेति मावः // 16 // म्याकरण-पदाचिय-प्रक्षिन् को अन आदेश होने पर अलोप / पङ्कजैः-पडात् जायते इति पङ्क+/जन्+डः। आदित-मा+/दा को आत्मने० लुङ्, इत्व, सिच्लोप /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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