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________________ द्वितीयसर्गः अनुवाद-जिस ( नगरी) में दमयन्ती मुख, हाथ, पैरे और आँखों के स्थान में (विविध वर्ष के कमलों तथा अन्य अङ्गों में चम्पा के पुष्पों से बनी कामदेव को पूजा को पुष्पमाला की शोमा स्वयं ही धारण किये हुए थी।॥ 96 // टिप्पणी-यहाँ कवि दमयन्ती को स्वयं विविध कमलों से बनी कामदेव की पूजा की माग का रूप दे रहा है। मल्लि. वहाँ अङ्गों पर कुसुमों का अमेदाध्यवसाय मानकर मेदे अमेदातिशयोक्ति कैसे कह गए-हमारी समझ में नहीं आता। यहाँ तो विषय-भूत अङ्ग और आरोप्यमाण पुष्प दोनों अनिगीर्ण-स्वरूप अर्थात् शब्दोपात्त हैं, इसलिए यह शुद्ध रूपक का ही क्षेत्र है। वह 'सत्रः श्रियम् आदित' इस निदर्शना का अङ्ग बना हुआ है। स्रक्-शोमा स्रक में हो रह सकती है, अन्यत्र नहीं अतः वह बिम्ब-प्रतिबिम्बमाव से 'श्रियमिव श्रियम्' इस तरह सादृश्य में पर्यवसित होती है। शब्दालंकर वृत्त्यनुपास है। जघनस्तनभारगौरवाद् वियदालम्ब्य विहर्तुमक्षमाः। ध्रुवमप्सरसोऽवतीर्य यां शतमध्यासत तत्सखीजनः // 97 // अन्वयः-जघन-स्तन-मार-गौरवात् वियत् आलम्ब्य विहर्तुम् अनमाः शतम् अप्सरसः अवतीर्य तत्सखो-जनः याम् अध्याप्तत / टीका-जघने कटयग्रमागौ च स्तनौ कुचौ च तयोः समाहारो जघनस्तनम् ( समाहारदन्दू ) तस्य भारः मरः स्थूलत्वमित्यर्थः तस्य गौरवात् गुरुत्वात् ( उमयत्र 10 तत्पु०) वियद् आकाशम् अवलम्ब्य आश्रित्य विहतु विचरितुं क्रीडितुमित्यर्थः अक्षमाः असमर्थाः सत्यः शतं शतसंख्याका अप्सरसो दिव्याङ्गना अवतीर्य स्वर्गात् आगत्य तस्य दमयन्त्याः सख्य आलयः (10 तत्पु०) चासो जनः (कर्मधा० ) जनशब्दोऽत्र बह्नर्थकः सख्प इत्यर्थः / भूत्वा ) याम् कुण्डिननगरीम् अध्यासत अध्यतिष्ठन् इति ध्रुवम् / दमयन्त्याः शतशः सख्योऽप्सरोवत् परमसुन्दर्य आसन्निति भिावः // 97 // ___ व्याकरण-अक्षमाः न क्षमन्ते इति /क्षम् +अच् ( कर्तरि ) / अध्यासत अधि+/आस् + रुङ् 'अधि शीड्स्थासां कर्म' (1 / 4 / 46 ) से सकर्मकता। अनुवाद-जाँघों और स्तनों के बोझ के भारीपन के कारण आकाश में विहार करने को असमर्थ हुई एक सौ अप्सरायें मानों (स्वर्ग से भूलोक ) उतरकर उस ( दमयन्ती) की सहेलियों (बनकर ) जिस ( नगरी) रह रही थीं // 97 // टिप्पखो-यहाँ दमयन्ती की सुन्दर सखियों पर अप्सराओं की कल्पना की जा रही है, अतः उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक ध्रव शब्द है। किन्तु विद्याधर ने आर्थ अपहव मानकर यहाँ सखियों सखियों नहीं बल्कि सखियों के व्याज से मानों अप्सराये है-इस तरह सापह्नवोत्प्रेक्षा मानी है। शब्दालंकार वृत्त्या स्थितिशालिसमस्तवर्णतां न कथं चित्रमयी विमर्तु या / स्वरभेदमुपैतु या कथं कलितानल्पमुखारवा न वा // 9 // अन्धयः-या स्थितिशालिसमस्तवर्णताम् कथम् न विमर्तु ? ( अत एव ) चित्रमयो; अथ च या चित्रमयो स्थिति वर्षताम् कथं न बिमर्तु ? वा या कलितानल्पमुखारवा कथं स्वर मेदम् न उपैतु!
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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