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________________ नैषधीयचरिते कान्त मपियों से बढ़े हुए जल वाली आकाशगंगा प्रत्येक चन्द्रोदय में पतिव्रताओं का औचित्य-धर्मनहीं छोड़ती थी।। 89 // टिप्पणी-समुद्र नदियों का पति कहलाता है। चन्द्रोदय पर वह जल-वृद्धि से उछलने लगता है। आकाशगंगा मी जल-वृद्धि से उछलने लग जाती है। उसमें कुण्डिन नगरी के ऊँची छतों पर हगे चन्द्रकान्तों के पिघलने का जल मिल जाता है। पति के दुःख में दुःखी और हर्ष में प्रसन्न होना पतिव्रताओं का धर्म कहलाता है-'आर्तातें मुदिते हृष्टा प्रोषिते मलिना कृषा। मृते च म्रियते या स्त्री सा स्त्री शेया पतिव्रता / / ' कृष्प्यकान्त ने यहाँ टिप्पणी ही है कि चन्द्रोदय होने पर आकाप्पगंगा फूली न समाई; क्योंकि चन्द्रमा उसका पति है। समुद्र को नदियों का पति तो हम सुनते ही हैं, किन्तु चन्द्रमा नदियों का पति होता है-यह बात हम नयी सुन रहे हैं। नगरी के भवनों का आकाशगंगा से भी इतना अधिक ऊँचा होना कि उसमें लगे चन्द्रकान्तों के पिघलने का जल मू-पर न गिर कर आकाशगंगा में जा मिलता है-यह कवि को कितनी बड़ी गप है। इसलिए यहाँ आकाशगंगा से चन्द्रकान्त मपियों के जल का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताना असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति है। उदात्त चला ही आ रहा है, आकाशगंगा पर नायिका-व्यवहारसमारोप होने से समासोक्ति है-इस तरह यहाँ तीनों का संकर है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / रुचयोऽस्तमितस्य भास्वतः स्खलिता यत्र निरालयाः खलु / ___ अनुसायमभुर्विलेपनापणकश्मीरजपण्यवीथयः // 90 // अन्वयः-यत्र अनुसायम् विलेप. बीथयः अस्तम् इतस्य मास्वतः स्खलिताः (अत एव) निरालयाः रुचयः किल अभुः। टीका-यत्र यस्यां ( नगर्याम् ) सायं सायमित्यनुसायम् ( वोप्सायामव्ययीभावः) प्रतिसायंकाल. मित्यर्थः विलेपनानां विलेपनगन्धद्रव्यागाम् आपणेषु विक्रय-हट्टेषु ( 10 तत्सु०)। कश्मीरजानि कुङ्कमानि एव पण्याणि विक्रयद्रव्याणि ( कर्मधा० ) तेषां बीथयः अणयः ( 10 तत्पु० ) अस्तम् इतस्य गतस्य भास्वतः सूर्यस्य स्खलिताश्चयुता अत एव आलयात् निष्क्रान्ता इति निरालयाः ( प्रादि तत्पु०) निराश्रया इत्यर्थः रुचयः कान्तयः किरप्पा इति यावत् किल इव अभुः बभुः मान्ति स्मेति यावत् / अस्तं गच्छतः सूर्यस्य किरणा रक्त-पीता भवन्ति, कश्मीरजानां कान्तिरपि रक्त-पीता भवतीति परस्परसाम्यम् // 9 // ___ म्याकरण-इत Vs+क्तः ( कर्तरि ) / मास्वान् भाः अस्मिन्नस्तीति मास्+मतुप म को व। कश्मीरजम् कश्मीराज्जायते इति कश्मीर+/जन्+डः। पण्यम् पण्यते इति पण+यत् / प्रभुः- भा+लुङ। मनुवाद-जिस ( नगरी ) में प्रत्येक सायंकाल को सुगन्धित द्रव्यों के बाजारों में बेचने हेतु रखी ( कश्मीरी ) केसरों को पंक्तियाँ ऐसी लगती थीं मानो अस्त हुए सूर्य की गिरी हुई ( अत एव ) निरामय किरणे हों // 90 // टिप्पणी-यहाँ केसरों पर अस्तंगत सूर्य की किरणों की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है / आयधे
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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