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________________ द्वितीयसगः पण्यवीथिः (10 तत्पु.) एव अर्णवः समुद्रः (कर्मधा०) पटु तारं यथा स्यात्तथा दध्वान शब्दायाचक्रे / यथार्णवे शंखाः, भणयः वराटिकाः कर्कटाः सिकता च भवन्ति तथैवास्या नगर्या आपणेऽपिखासन्निति भावः // 8 // व्याकरण-आपणः आ समन्तात् पण्यते वस्तूनां क्रयविक्रयादिव्यवहारः क्रियतेऽत्रेति आV पण +घञ् ( अधिकरणे ) / अर्णवः असि ( जलानि ) अस्मिन् सन्तीति अर्पस् +वः सकारलोपश्च / अनुवाद-जिस ( नगरी) का बाजार-रूपो समुद्र, जहाँ शंख और ( मोती आदि ) मषियों थीं, कौड़ियों के गिनने में इधर-उधर जा रहे ( लोगों के ) हाथ-रूपी केकड़ों का समूह था और कपूरचूर्ण के रूप में स्वच्छ रेत थो, खूब कोलाहलमय बना हुआ रहता था / / 88 / / टिप्पणी-यहाँ नगरी के आपण पर अर्णव का साङ्गोपाङ्ग आरोप है। सागर में तरंगों का कल-कल रहता है, यहाँ भी लोगों का कलकल है, वहाँ शंख, मणि, आदि स्वतः रहते हैं, यहाँ के विक्रयार्थ रखे हुए है; वहाँ कौड़ियों और केकड़े रहते हैं, यहाँ भी मुद्रा के रूप में कौड़ियाँ गिनने में लगे और हाथों के रूप में केकड़े हैं, वहाँ रेत रहती है। यहाँ रेत के रूप में कपूर के चूर्षों के ढेर विक्रयार्थ पड़े हुए हैं। इस तरह यह साङ्ग रूपक है। शब्दालंकारों में 'बालु' 'बालु' में यमक का 'वालुक' 'वालुकः' इस छेकानुप्रास के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यदगारघटादृकुटिमस्रवदिन्दूपलतुन्दिलापया। मुमुचे न पतिव्रतौचिती प्रतिचन्द्रोदयमभ्रगङ्गया // 89 // अन्धयः-यदगार "लापया अभ्रगङ्गया प्रतिचन्द्रोदयम् पतिव्रतौचिती न मुमुचे। टीका-यस्या नगर्या पगाराणां गृहाणां या घटा: पंक्तयः तासां या अट्टाः अट्टालिका उपरितनाः कक्षा इति यावत् ( सर्वत्र प० तत्पु० ) तेषु ये कुट्टिमाः बद्धभूमयः ( स० तत्पु० ) ( 'कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भूः' इत्यमरः ) तेषु स्रवन्तो द्रवन्तः ( स० तत्पु० ) ये इन्दूपलाश्चन्द्रकान्त-मणयः (कर्मजा०) ते: तुन्दिकाः तुन्दिन्यो वृद्धिं गता इति लक्ष्यार्थः ( तृ० तत्पु० ) आपो जलानि ( कर्मधा० ) यस्यास्तथाभूतया ( ब० वी० ) अभ्रगङ्गया प्राकाशगङ्गया चन्द्रस्य उदयः चन्द्रोदयः (10 तत्पु०) चन्द्रोदये चन्द्रोदये इति प्रतिचन्द्रोदयम् ( वीप्सायामव्ययीभावः ) पतिव्रतानां सतीनाम् औचिती औचित्यं न सुमुचे न त्यक्तम् / चन्द्रोदये पति समुद्रं जल-वृद्धया समुल्लसन्तमवलोक्य पत्नीभूताऽऽकाशगङ्गाऽपि कुण्डिनीनगरीमहोच्चागाराट्टालिकास्य चन्द्रकान्तमपि-प्रस्रवज्जलम् आत्मनि गृहीत्वा जलवृद्धया समुल्लसतीति मावः // 86 // __व्याकरण-तुन्दिलं-तुन्दं ( अग्रेगतम् ) जठरमरयास्तीति तुन्द+लच् ( मतुवर्थीय ) / तुन्दिलापया-'ऋक्पूरब्धूः' ( 5 / 4 / 74 ) से अप् शब्द को समासान्त अप्रत्यय / औचितीउचितस्य भाव इति उचित+प्या+लीप यकार का लोप / अनुवाद-जिस ( कुण्डिननगरी ) को गृह-पंक्तियों की भटारियों के फों में बहते हुए चन्द्र
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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