SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयसर्गः रूप सूर्य किरणों को आधार के बिना बताने से विशेष अलंकार भी है। इतनी अधिक के पर बताने में उदात्त तो यथावत् चला ही आ रहा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्राप्त है। विततं वणिजापणेऽखिलं पणितुं यत्र जनेन वीक्ष्यते / मुनिनेव मृकण्डुसूनुना जगतीवस्तु पुरोदरे हरेः // 11 // अन्वयः-यत्र वणिजा पषितुम् आपणे विततम् अखिलम् जगती-वस्तु पुरा हरेः उदरे मृकण्डुसू नुना मुनिना इव जनेन वीक्ष्यते / ____टीका-यत्र कुण्डिनीनगर्या वणिजा जातावेकवचनं वपिग्मिः पणितुं व्यवहतु विक्रेतुमिति यावत् आपणे पण्य-वीथिकायां विततं प्रसारितम् अखिलं समस्तं जगत्याः संसारस्य वस्तु पदार्थजातं (प० / तत्पु० ) पुरा पूर्व हरेः विष्णोः उदरे जठरे मृकण्डोः एतन्नामकस्य ऋषिविशेषस्य सूनुना पुत्रेण ऋषि-! मार्कण्डेयेनेत्यर्थः इव जनेन लोकैः वीक्ष्यते दृश्यते / नगर्या आपणे जगतः सर्वाण्यपि वस्तुजातानि ऋतुं सुलभान्यासन्निति भावः // 91 // व्याकरण-वणिक पणते व्यवहरतीति पण +इज् प को व। प्रापणः आ=समन्तात् पण्यते व्यवहियतेऽत्रति आ+/पण+घञ् ( अधिकरणे)। वीच्यते पुरा शब्द का योग होने से भूत में लट् ( 'पुरि लुङ् चास्मे' 3 / 2 / 122) / अनुवाद-जिस ( नगरी ) में बणियों द्वारा व्यापार के लिए बाजार में फैलाई हुई जगत् की। सभी वस्तुयें लोगों के देखने में आती थीं, जैसे पहले ( कमी ) मृकण्ड ऋषि के पुत्र (मार्कण्डेय) को विष्णु के उदर में जगत् को सभी वस्तुयें अर्थात् सारा जगत देखने को मिला था // 91 // टिप्पणी-मृकण्डसूनु-पुराणों के अनुसार ऋषि मार्कण्डेय ने विष्णु भगवान् की उपासना करके उनसे यह वर मांगा कि वह उनके उदर में रहें / मगवान ने वर दे दिया। ऋषि भगवान् के उदर में रहकर वहाँ सारा जगत् का साक्षात्कार कर बैठे। यहाँ नगरी के बाजार को विष्णु के उदर से उपमा दी गई है, इसलिए उपमा है। उदात्त चला ही आ रहा है। शब्दालंकार पणे' 'पपि तथा 'निने' 'नुना' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। सममेणमदैयंदापणे तुलयन् सौरभलोमनिश्चलम् / पणिता न जनारवैरवैदपि कूजन्तमलिं मलीमसम् // 92 // अन्वयः-यदापये सौरम-लोभ-निश्चलम् मलीमसम् अलिम् एप-मदैः समम् तुलयन् पपिता कुजन्तम् अपि जनारवैः न अवैत् / टीका-यस्या नगर्या आपणे पण्यत्रीथिकायां सौरभस्य परिमलस्य यो लोभोऽभिलाषः (प० तत्पु० ) तेन निश्चलं निश्चेष्टम् ( तृ० तत्प० ) मलोमसं मलिनं कृष्णवर्णमित्यर्थः अलिम् भ्रमरम् एणस्य मृगजातिविशेषस्य मदः कस्तूरीति यावत् तैः ( 10 तत्पु० ) समं सह तुलयन् तौलयन् पणिता वणिक् कूजन्तं शब्दायमानम् अपि सन्तं जनानां लोकानाम् आरवैः शब्दैः कोलाहलैरिति यावत् ( 10 तत्पु०) न अवैत् ज्ञातवान् / सौरभलोमेन कृष्णवर्णकस्तूरिकाया उपरिस्थितं कृष्णवर्णभ्रमरमपि कस्तूरीति मत्वा तोलयन् वणिक् गुञ्जन्तमपि भ्रमरं जनकलकलमध्ये नाजानादिति मावः // 12 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy