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________________ 52 नैषधीयचरिते बतिन्यौ इत्यर्थः ( स० तत्पु० ) रोदसो चावापाथच्यो यस्य तथाभते (ब० वी० ) यस्या नगर्या अगारे गृहेषु जातावेकवचनम् , निशि नक्तं एकिका एकाकिनी पूर्णिमा तिथिः पौर्णमासी निखिलान् प्रतिपदादीन् सर्वान् तिथीन् ( 'तिथयो द्वयोः' इत्यमरानुसारेण पुंस्त्वम् ) अतिथिः प्राधुणिकः सन् उपतस्थे माप, तैः सह सङ्गता बभवेत्यर्थः / स्फटिकनिर्मितगृहश्वेतच्छटाव्यापनात् सर्वापि रात्रिः पूर्णिमारात्रिवत् दीप्यते स्मेति मावः // 76 // प्याकरण-दीप दीप्यते इति /दीप+रः ('नाम-कम्पि०' 3 / 2 / 167) / एकिका एका एवेति एक+कः ( स्वार्थे ) / उपतस्थे उप+/स्था+लिट् ‘उपाद्देव पूजा.' इत्यादिना संगतकरणे बात्मनेपदम् / अनुवाद-निस नगरी के महलों में जो श्वेत और चमकीले मप्पियों के बने हुए थे और जिनके बास-पास की पथिवी एवं आकाश ( मणि-प्रकाश-रूप में ) हँसते रहते थे, रात को केवल एक ही पौर्षमासी तिथि सभी अतिथियों की अतिथि बनकर रहा करती थी // 76 // टिप्पणी-यहाँ समी रात्रियों में पूर्णिमा तिथि को सम्बन्ध न रहने पर भी सम्बन्ध बताने से बसम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति, अतिशय सम्पत्ति के वर्णन में उदात्त तथा पूर्णिमा और अन्य तिथियों के चेतनीकरप्प में समासोक्ति-इन सभी का संकर है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है, तिथि' शब्द के एक से अधिक बार साम्य होने से छेक नहीं बन पाया। सुदतीजनमज्जनार्पितधुसूणैर्यत्र कषायिताशया। न निशाखिलयापि वापिका प्रससाद अहिलेव मानिनी // 77 // भन्वयः-यत्र सुदतीजनमज्जनापितैः घुसृणैः कषायिताशया वापिका ( सुदतीजनमज्जनापितैः घुसणः कषायिता ) ग्रहिला मानिनी इव अखिलया अपि निशा न प्रससाद / __टीका-यत्र यस्यां नगर्या सुदत्यः सुन्दर्यश्च ते जनाः लोकाः। ( कर्मधा० ) तेषां मज्जनेन क्रीडा-रूपेण जलावगाहनेनापितैः दत्तः संक्राभितैरित्यर्थः ( त० तत्पु० ) घुसृणैः अङ्गरागरूपैः कुङ्कमैः कवायितः क्लुषित आशयो मध्यं यस्याः तथाभता ( ब० वी० ) वापिका वापी दीपिवेत्यर्थः सुदतीबनेषु मन्दरीषु सपत्नीषु यत् मज्जनम् आलिंगनादिना समासञ्जनं ( स० तत्पु० ) तेन अपिते. स्वपतौ संक्रामितैः (त. तत्पु०) पति-शरीरे सपत्नीशरीरगताङ्गरगं संक्रमितमवलोक्येति मावः कषायितः मालिन्यं गत यित इति यावत आशयो हृदयं यस्याः सा (ब० वी० ) ग्रहिला हठिनी (ग्रहोऽनुग्रहनिबन्धौ ति विश्व:) मानिनी प्रणयकोपवती नायिकेव अखिलया निखिलयाऽपि निशा रात्र्या न प्रससाद न निर्मला अथ च प्रसन्ना बभूव // 77 // व्याकरण-सुदती सु शोभना दन्ता यस्याः तथाभूता। यहाँ शंका हो सकती है कि दन्त शब्द को दत भादेश 'अग्रान्त० ( 5 / 4 / 145 ) इस सत्र से नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उसमें सु शब्द नहीं आया हुआ है, अतः सुदन्ता होना चाहिए। इसका एक समाधान यह है कि उक्त सूत्र में बाये हुए चकार के सामर्थ्य से अनुक्त सु शब्द का भी ग्रहण हो सकता है। वास्तव में 'सुदती' शब्द व्युत्पन्न होता हुआ भी पङ्कजादि की तरह योगरूढ़ अर्थात् स्त्रीमात्र में रूढ़ होने से स्त्रीसंशक
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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