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________________ 45. द्वितीयसर्गः प्रथमं पथि लोचनातिथि पथिकप्रार्थितसिद्धिशंसिनम् / कलसं जलसंभृतं पुरः कलहंसः कलयांबभूव स: / / 65 // अन्वयः-स कलहंसः प्रथमम् पथि लोचनातिथिम् पथिक..."नम् जल-संभृतम् कलसम् पुरः . करूयाम्बभूव / टीका-स कलहंसः राजहंसः प्रथमम् आदौ पथि मागे लोचनयोः नयनयोः अतिथिम् अतिथिरूपम् (10 तत्पु० ) पथिकैः पान्थैः पार्थिता याचिता वाञ्छितेत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) या सिद्धिः कार्य-सफलता (कर्मधा०)तां शंसितु सूचयितु शीलमस्येति तथोक्तम् ( उपपद-तत्पु०) जलेन वारिणा संभृतं पूर्णम् (तृ० तत्पु०) कलप्तं कुम्भं पुरः अग्रे कलयाम्बभूत्र अवालोकयत् / जलपूर्णकलसदर्शनं शुभशकुनेषु गण्यते लोके // 65 // ज्याकरण-अतिथिः न तिथिः आगमनस्य नियत समयो यस्य, अकस्मात्याप्त इत्यर्थः / पथिकः पन्यानं गच्छतीति पथिन् +ष्कन् / कलयाम्बभूव कल् + आम् +Vs+लिट् / अनुवाद-वह राजहंस आरम्म में मार्ग में आँखों का अतिथि-रूप, पथिकों द्वारा भमिलषित (कार्य को ) सिद्धि का सूचक, जल-मरा कलस ( अपने ) सामने देख बैठा // 65 // टिप्पणो–यहाँ कलम पर अतिथित्वारोप होने से रूपक है। विद्याधर ने उपमा कही है, जो हमारी समझ में नहीं आती। 'पथि' 'पथि' और 'कल' 'कल' 'कल' में यमक तथा अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अवलम्ब्य दिदृक्षयाम्बरे क्षणमाश्चर्यरसालसं गतम् / स विलासवनेऽवनीभृतः फलमैक्षिष्ट रसालसंगतम् / / 66 // अन्वयः-स दिदृक्षया अम्बरे क्षणम् पाश्चर्य-रसेन अलनम् गतम् अवलम्ब्य भवनीभृतः विलासवने रसाल-संगतम् फलम् ऐक्षिष्ट / टीका-स हंसः दिदृक्षया स्वगन्तव्यमार्ग द्रष्टुमिच्छया अम्बरे गगने क्षणं क्षणपर्यन्तम् आश्चर्यस्य नलाद्भुत-विलासकाननदर्शनेनोत्पन्नस्य विस्मयस्य रसेन भावेन (10 तत्पु० ) अलसं मन्दं गतं गतिम् अवलम्ब्याश्रित्य अवनीं पृथिवीं बिमर्तीति तथोक्तस्य राशो नलस्य विलासस्य विनोदस्य वने उद्याने (10 तत्पु०) रसाले आम्र-वृक्षे संगतं लग्नम् (प० तत्पु० ) फलम् आम्र-फलम् ऐक्षिष्ट दृष्टवान् , आम्र-फलदर्शनमपि माङ्गलिकं भवति // 66 // व्याकरण-दिक्षा द्रष्टुमिच्छति / दृश्+सन् +अ+टाप् / गतम गम्+क्तः (भावे)। अवनीभृत् अवनी/भृञ्+क्विप् ( कतरि ) / ऐसत- + लुङ् / अनुवाद-उस ( हंस ) ने ( अपने गन्तव्य मार्ग को) देखने को चाह से आकाश में क्षण भर ( नल का अद्भुत उद्यान देख) पाश्चर्य-भाव से गति को भन्द करके राजा के विलासोद्यान में आम के पेड़ पर लगा हुआ फल देखा // 66 // टिप्पणी-यहाँ 'रसालसं गतम्' 'रसालसं-गतम्' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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