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________________ पञ्चमपगे: रिप्पणी-देखिए किस प्रकार वाक्छल का प्रयोग करता हुआ इन्द्र द्विमुखी भाषा में अपरेडिए गस्ता साफ कर रहा है, एक तरफ अपने प्रतियोगी अन्य देवताओं को बुधू बनाकर प्रार दूसरा नाफ नायकको प्रच्छन्न रूप से डरा-धमकाकर / वह सभी तरह का वह कौटिल्य अपना रहा है जो प्रतिनायक सामान्यतः अपनाया करते हैं। दोनों अर्थ प्रकृत होने से हम यहाँ श्लेष कहेंगे। नल पर नन्द्रत्व-स्थापन में रूपक है / शब्दालंकारों में विद्याधर छक कहते हैं, किन्तु 'महि', 'महा', 'मिहि' में टो छेक नहीं हो सकता है, क्योंकि वर्णों का सकृत् साम्य नहीं है, अ-कृत् साम्य है। 'चिरस्य' "नरस्य' के 'रस्य' रस्यं' में यमक बनेगा, जिसके साथ पदान्तगत अन्त्यानुपास का एकवाचकानु. प्रवेश संकर है; अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। . आसते शतमधिक्षिति भूपास्तायराशिरसि ते खलु कूपा / किं प्रहा दिवि न जाग्रति ते ते मारवतस्तु कतमस्तुलयाऽरते // 10 // अन्वयः-(हे नल, ) अधिक्षिति शतम् भूगः आसते; (परम् त्वम् ) तोयर शिः असि; ते खलु कूपाः ( सन्ति ) / दिवि ते ते ' हाः न जाग्रति किम् ? ( परन्तु ) मास्करस्य तुलया कतमः आस्ते ? टीका-(हे नल.) क्षिती पथिव्याम् इत्यधिक्षति ( अव्ययीभा० ) शतम् शतसंख्यकाः शतश इत्यर्थः भूपाः राजान आसते तिष्ठन्ति सन्तीत्यर्थः, परम् त्वम् तोयस्य जलस्य राशिः समूहः (10 तत्पु० ) समुद्रः इत्यथः अमि; ते श-शो भूपाः खलु निश्चयेन कूपाः उदपानानि सन्तीतिशेषः / कृपाः गांधत्वात् क्षुद्र जला भवन्ति, समुद्रस्तु अनन्तजलराशित्वात् अगाधो भवति, अन्ये राजानः कूपवत् हीनाः, त्वं तु समुद्रवत् अगाधो महाश्चेति कृत्वा अन्यभूपान् विहाय स्वामेव वयं याचाम इति मावः / दिवि आकाशे ते ते प्रसिद्धाः चन्द्रादयः ग्रहाः ज्योतिष्पिण्डा: न जाग्रति न भ्राजन्ते इत्यर्थः किम् ? अपि तु जाग्रत्येवेति काकुः ( परन्तु ) भास्करस्य सूर्यस्य तुलया तुलनया सादृश्येनेति यावत् कतमः तेषां बहूना मध्ये कः श्रास्ते अस्ति न कोडवीति काकुः / यथ। शतशो ग्रहाणां मध्ये सूर्यस्य साम्ये न कोऽपि तिष्ठति तथैव शतशो राशा मध्ये त्वत्सदृशः कोऽप्यन्या नृपो नास्तोति भावः // 10 // व्याकरण -शतम् भूपाः-व्याकरण को दृष्टि से शतानि भूपाः चाहिए था क्योंकि राजे मंख्या में इने-गिने सो ही तो नहीं हैं, अनेकों सौ हैं। भूपाः भुवं पान्तीति भू+/पा+कः / कपात यास्काचार्य के अनुसार 'कुत्सितं पानमति (निपातनात् साधुः ) / ते ते वोप्सा में द्वित्व / प्रहाः यास्कानुसार 'गृह्णन्तीति सत:/ग्रह +अच् ( कतरि ) अर्थात् वे प्राणियों को अपने प्रभाव के भीतर ले लेते हैं। यद्यपि ज्योतिष में सूर्यादि नौ ही ग्रह माने जाते हैं किन्तु यहाँ ग्रह शब्द से आकाशस्थ समी ज्योतिपिण्डों का ग्रहण हो जाता है। भास्करः भासम् (प्रकाशम् ) करोती. भास् +/+अप् ( कर्तरि ) / तुला तुलनामेति Vतुल् + अ +टाप् / कतमः कतीनाम् मध्ये एक इति किम् +डतमच् / अनुवाद-(हे नल, ) पृथिवी में सैकड़ों राजे हैं, ( किन्तु ) तुम समुद्र हो; दे च / हैं / आकाश में ( चन्द्रादि ) प्रसिद्ध प्रसिद्ध ग्रह नहीं चमकते हैं क्या ? ( परन्तु ) सूर्य को बराबरी करने वाला उममें से कौन है ? // 10 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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