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________________ नधीयचरिते टिपदी-न्द्र डराने-धमकाने के बाद पैतरा बदल रहा है और अब चाटुकारिता-ठकुर. महाती पर उतर आया है। नल को जलाशयों की तुलना में समुद्र एवं ग्रह-नक्षत्रों की तुलना में सूर्य बताता हुआ वह उसकी प्रशंसा के पुल बांधने लग गया है / यहाँ भूपों पर कूपत्व और नल पर तोयगशित्व का आरोप होने से रूपक है। पूर्वार्ध के समानान्तर उत्तरार्ध को रखकर दोनों में परम्पर बिम्न प्रतिबिम्ब भाव होने से दृष्टान्तालंकार है / शब्दालंकारों में 'भूपाः' 'कूपाः' में भूप शब्द के विसों का सकार बनाकर 'तोयराशि' से जोड़ देने पर पादान्तगत अन्त्यानुप्रास बनने से रह गया है / 'राशि' 'रसि' में (शसयोरमेदात ) छक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विश्वदश्वनयना वयमेते स्वदगुणाम्बुधिमगाधमवेमः / . स्वामिहैव विनिवेश्य रहस्ये निर्वृतिं न हि लभेमहि सर्वे ? / / 10 // अन्वयः-विश्वदृश्व नयनाः वयम् एव अगाधम् त्वद्-गुणाम्बुधिम् अत्रेमः, हि इह रहस्ये एवम् त्वाम् अनिवेश्य मवें ( वयम् ) निर्वृतिम् न लमेमहि / टीका-विश्वम् सर्वम् दृष्टवन्ति साक्षात्कृतवन्नीति तथोक्तानि (उपपद तत्पु० ) नयनानि नेत्राणि ( कर्मधा० ) येषां तथाभूताः ( ब० वी०) सर्वसाक्षिण इत्यर्थः वयम् एव अगाधम् न गाधम् ( नञ् नरपु० ) गभीर मित्यर्थः तव गुणाः सत्यसन्धस्व-दया-दाक्षिण्यादयः( ( प० तत्पु० ) एव अम्बुधिः समुद्रः ( नर्मधा० ) तम् अवेमः जानीमः विश्वमा क्षिनयनत्वकार पात् वयमेव से गुणान् ज्ञातुं समर्थाः, नान्ये इत्यर्थः / हि अत इह अस्मिन् रहस्ये दमयन्तीपरिणयनरूपगोप्याथें एवम् प्रकारेण स्वाम् अनिवेश्य अनियोज्येत्यर्थः सर्वे वयम् निवृतिम् सुखं न लभेमहि न प्राप्नुमः तव दौत्येनैव वयं सुखिताः मरिष्याम इति भावः // 11 // ज्याकरण-विश्वदृश्व विश्व+/दृश्+क्वनिप् ( भूताथें ) / अम्बुधिः अम्बूनि धोयन्तेऽ ति अम्बु धा+कि ( अधिकरप्पे ) / प्रवेमः अव+Vs+ठट् उ० पु. / मिवृतिम् निर+ V+क्तिन्। अनवाद-सर्वसाक्षी नयनों वाले हम हो तुम्हारे गम्भीर गुण रूपी समुद्र से अवगत 1, अतः इस गुप्त कार्य में इस तरह (दूत रूप से ) तुम्हें नियुक्त किये बिना इमें चैन नहीं मिलेगा / / 101 // टिप्पणी-देखिए नल को प्रशंसा के साथ-साथ हो इन्द्र 'यदि हमारा दूत बनकर नहीं जाओगे, तो हम तुम्हें शाप दे देंगे' किस तरह शाप-मय की तलवार भी उसके सिर के ऊपर लटकाये रखता है / साथ ही मेरे साथी मेरा यह कौटिल्य न माँप जाएँ कि यह अपने लिए ही कोशिश कर रहा है'। अतः उन्हें झूठमूठ हो आश्वासन देने के लिए 'वयं सर्वे' का प्रयोग करके बुधू बना रहा है। यहां गुप्षों पर अम्बुधित्व का भारोप होने से रूपक है, जिसके साथ नियुक्ति का कारण बताने से काम्य. लिंग मी है / 'विश्वदृश्व' तथा 'वेश्य' 'हस्ये' ( शसयोरमेदात ) में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। .शुद्धवंशजनितोऽपि गुणस्य स्थानतामनुभवन्नपि शक्रः / क्षिप्नुरेनमृजुमाशु सपक्षं सायकं धनुरिवाजनि वक्रः / / 102 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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