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________________ 166 नैषधीयचरिते अपनाकर वे नायिका को हथियाना चाहते हैं। इन्द्र मी प्रतिनायक है। अपने काम में आड़े आ रहे नल को ही नहीं, बल्कि अपने तीन साथियों-'अग्नि, वरुण, यम' को मो उसने टरकाना है / इसीलिए यह धूर्तराज 'वक्रमावविषम' वाषी बोलने लगता है। वीतविशङ्क में आपाततः पुनरुक्ति. बोलो, चाहे 'विशङ्के' बोलो एक ही बात है किन्तु वाद को वास्तव में 'वि' का विविध अर्थ लेकर पुनरुक्ति नहीं रहती है, अतः यहाँ पुनरुक्तवदामास अलंकार है। 'नये' 'नये' में यमक, 'गुरुगिर' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पाणिपीडनमहं दमयन्त्याः कामयेमहि महीमिहिकांशो!। दूत्यमत्र कुरु नः स्मरमीति निर्जितस्भर ! चिरस्य निरस्य // 99 // अन्वयः-हे मही-मिहिकाशो ! ( वयम् ) दमयन्त्याः पाणि-पीडन-महम् कामयेमहि; हे निर्जितस्मर ! चिरस्य स्मर-मीतिम् निरस्य अत्र नः दूत्यम् कुरु / टीका-महाः पृथिव्याः मिहिकांशो ( प० तत्पु० ) मिहिका हिमम् ('प्रालेयं मिहिका चाथ' इत्यमरः) अंशषु किरणेषु यस्य तथाभूतः चन्द्र इत्यर्थः तत्सम्बुद्धौ, वयम् चत्वारो देवाः दमयन्त्याः भैम्याः पाणेः करस्य पीडनम् ग्रहणम् ( 10 तत्पु० ) विवाह इत्यर्थः एव महः उत्सवः ( 'मह उद्धव उत्सवः' इत्यमरः) तम् ( कर्मधा० ) कामयेमहि अमिलषमहि; निजितः सौन्दर्येण तथा वशित्वेन च पराभूतः स्मरः कामः ( तृ० तरसु० ) येन तत्सम्बुद्धौ (ब० ब्रो०) चिरस्य चिरकालाय स्मरात् कामाद् मीति मयम् (पं० तत्पु० ) निरस्य निराकृस्य दमयन्त्याः समक्षं स्वं कामभोतो न भविष्यसि, यतस्त्वम् कामजिदसोति भावः, अत्र अस्मिन् दमयन्त्या सह पाणिग्रहणमहे नः अस्माकम् दृस्यम् दौत्यं कर्म कुरु विधेहि अस्माकं दूतो भूत्वा अस्मान् वरीतुं दमयन्ती प्रेरयेति भावः / अथ च बाक्छलेनापरोऽयमर्थ:-हे महीमिहिकांशो! अहम् दमयन्त्याः महि मह उत्सवोऽस्मिन्नस्तीति तथोक्तम् उत्सव. पूर्णमित्यर्थः पाणि-पीडनम् विवाहम् कामये इच्छामि; अत्र ममास्मिन् कार्य नः मम दूत्यं कुरु, भीतिम् भयम् स्मर स्मृतिविषयीकुरु, यदि मे दौत्यं न करिष्यसि तहिं मया त्वयि क्रियमाणादनात शापाद्वा भयं स्मरेत्यर्थः चिरस्य अत्र विलम्ब निरस्य अपाकुरु न विलम्बितव्यमित्यर्थः // 99 // व्याकरण-दूत्यम् दूतस्य कति दूत+यत् ( 'दूतस्य भावकर्मणि' 4 / 4 / 120 / वैदिक प्रयोग। नः गूढ़ अर्थ प्रतिपादन में यहाँ 'मम' एक वचन के स्थान में नः बहुवचन है ( 'अस्मदो द्वयोश्च' 22 / 56 ) / भीतिमू स्मर कर्मत्व-विवक्षा से यहाँ षष्ठी नहीं हुई है ( जो 'अधीगथदयेशां कर्मणि' 23 52 से प्राप्त था)। चिरस्य 'चिराय, चिररात्राय, चिरस्याद्याश्चिरर्थकाः' इस अमरकोश के अनुसार यह षष्ठीप्रतिरूपक विलम्बार्थक अव्यय है। निरस्य निर् + /अस्+ल्यप् , अर्थान्तर में निर / अस्+लोट् मध्य० / अनुवाद-हे पृथिवी के चाँद ! हम दमयन्ती के साथ विवाहोत्सव चाहते हैं / हे काम-विजेता। शीघ्र ही काम-भय को हटाकर तुम इस सम्बन्ध में हमारे दूत बनो। ( हे पथिवी के चौद / मैं दमयन्ती के साथ ( अपना ) विवाहोत्सव चाहता हूँ। ) इस काम में तुम मेरे दूत बनो; ( ना करने पर मेरे ) मव को याद करो; विलम्ब मत करो // 99 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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