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________________ 144 नैषधीयचरिते अनुवाद-( यम की चिन्ता ) वह ( दमयन्ती ) यदि उस ( नल ) को नहीं वरती है अथवा बरतो है, तो दोनों ही तरह से वह निश्चय ही मेरी प्रियतमा नहीं बनेगो; पहले विकल्प में उस अगुणशा को धिक्कार है। दूसरे विकल्प में मुझे उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? टिप्पणी-प्रेयसी बनने के लिए स्त्रोमें गुषता अपेक्षित है। अगुषश फूहर-स्त्री बने, वो बने, लेकिन प्रेयसी कदापि नहीं बन सकती है। यदि गुयश दमयन्ती गुणी नल को ब्याहती है, वो ठोक है; वह नल को प्रेयसी बनेगी मेरी कहाँ से ! मैं तो दोनों ही तरह से गया। यम की इस चिन्ता के कारण यहाँ बता दिये गए हैं, इसलिए काम्यकिङ्ग है / 'वृपते' 'वृपते' में छेक और अन्यत्र प्रत्यनुप्रास है। मामुपैष्यति तदा यदि मत्तो वेद नेयमियदस्य महत्वम् / ईदृशी न कथमाकलयित्री मद्विशेषमपरान्नृपपुत्री // 70 // अन्वय-इयम् माम् तदा ( एव ) वरिष्यति, यदि मत्तः अस्य इयत् महत्त्वम् न वेद / ईदृशी च नृपपुत्री अपरात् मद्-विशेषम् कथम् आकठयित्री ? टीका-(वरुपश्चिन्तयति) इयम् दमयन्ती माम् वरुणं तदा तस्मिन् समये ( एव ) वरिष्यति मम वरणं करिष्यति, यदि चेत् (इयम् ) मत्तः मद पेक्षया अस्य नकस्य इयत् एतावदधिकम् महत्त्वम् गुणाधिक्यम् न वेद न जानाति / ईशी मदपेक्षया नलगतगुणाधिक्यम् अन्नानाना च नृपस्य मीमभूपस्य पुत्री दुहिता दमयन्ती ( 10 तत्पु० ) अपराव अन्यस्मात् सनातीयाद् देवाद् विजातीयाद् मानवाद् वा मयि विशेषम् महत्त्वं गुणाधिक्यमित्यर्थः ( स० तत्पु० ) कथम् केन प्रकारेण प्राकलयित्री शात्री ? न कथमपोति काकुः / मदपेक्षया नलगतं सौन्दर्यातिशयम् अबानानासा मा नैव वरिष्यति, यतः नलवत् अन्यापेक्षया ममापि सौन्दर्यातिशयं न शास्यति तुल्यन्यायादिति मावः // 70 // व्याकरण-मत्तः अस्मद्+तसिल, मदादेश। वेद-विद्+सट् विकल्पसे प्णमुल् आदेश। अपरात् 'पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा' ( 7116 ) से विकल्प से होने वाले 'स्मात्' के अमाव में यह रूप है। आकलयित्री आ+/कल् + णिच्+तुन् ( ताच्छील्ये ) +डीप्, तृन्नन्त होने से ही षष्ठीनिषेध के कारण 'मद्विशेषम्' में दि०। अनुवाद-( वरुण ने सोचा ) यह ( दमयन्ती मेरा तब वरण करेगी, यदि मेरी अपेक्षा इस (नल ) की इतनी अधिक गुपमहत्ता न जाने और ऐसी ( गुणमहत्ता को अमानकार ) राजकुमारी मेरी भी विशेषता ( गुपमहत्ता ) की जानकार भला कैसे हो सकती है ( जो मुझे वरे ) ? टिप्पणी-वरुप का चित्त मी चञ्चल हो उठा / वह सोचने लगा-यदि गुणशा दमयन्ती नल का वरण करती है, तो मेरी नहीं बन सकती है और यदि अगुपशा बनकर नकका वरण नहीं करती तो मेरा भी वरण कैसे करेगी ? नक को तरह मेरी गुणविशेषता मी तो वह नहीं जान पाएगी में दोनों तरह से गया। विद्याधर के अनुसार यहाँ हेतु अलंकार है। 'त्री' 'त्री' में छेक और अन्यत्र परवनुपास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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