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________________ पश्चमसर्गः अनुवाद-जगत के प्राय ( प्राणप्रिय, प्राणवायुरूप ) बने इस ( नल ) को ( सामने ) पाकर यम, वरुण और अग्नि (क्रमशः) प्रसन्न, चन्चल, और अधिक ताप युक्त होते हुए मनमें मीतर ही मोतर सोच बैठे। टिप्पणी-हमने इस श्लोक की टोका में नारायण का अनुसरण किया है, किन्तु मल्लिनाथ नारायण का खण्डन करके और ही तरह व्याख्या करते हैं। उनका कहना है कि हृष्टत्व, चलत्व और विस्तृततापत्व धर्म क्रमशः यम, वरुप और अग्नि के साथ पृथक् नहीं लगते अपि तु समानरूप से तीनों देवों के साथ लगते हैं। नलको देखकर वे तीनों जहाँ उसके सौन्दर्यातिशय से प्रसन्न हुए, वहाँ 'दमयन्ती अब हमें क्या वरेगी' इस चिन्तासे चञ्चल हो उठे और ईर्ष्या तथा नैराश्य के मारे संतप्त हो गए / किन्तु हमारे विचार से यह ठीक नहीं लगता है। यम तो प्रसन्न हुआ, क्योंकि उसे प्राण मिल गए, लेकिन अग्नि, जो तप्त हुमा और वरुण जो चन्चल हुआ बे यम की तरह युगपत् प्रसन्न कैसे हो सकते हैं ! ये विरोधी धर्म है / इसके अतिरिक्त, तीनों को पृथक 2 हो रही चिन्ता के प्रतिपादक आगे के तीन श्लोकों से मा संगति ठीक नहीं बैठती कवि को एक वचन द्वारा व्यक्तिगत चिन्ता न बताकर स मुहिक चिन्ता ही बहुवचन द्वारा बतानी चाहिए थी। विद्याधर इस श्लोक में अलंकार को चर्चा न करते हुए चुप हैं, जिससे उनका कोई मी अभिप्राय यहाँ प्रकाश में नहीं पा रहा है। उनको और अन्यों की टीकाएँ हमें उपलब्ध नहीं हैं। हमारी अपनी व्याख्या के अनुसार यहाँ धोका यथासंख्य अन्वय होने से यथासंख्य अलंकार है; 'प्राणतां श्रितम्' में श्लेष है। 'हृष्ट' आदि शब्द विपरोत लक्षषा द्वारा अन्य ही अर्थ बता रहे हैं जिसे हम टीका में नारायण के शब्दों में स्पष्ट कर चुके हैं / शब्दालंकर वृत्त्यनुप्रास है। नैव नः प्रियतमोभयथासौ यद्यमुं न वृणुते वृणुते वा। एकतो हि धिगमूमगुणज्ञामन्यतः कथमदःप्रतिलम्मः // 69 // अन्वय-असो यदि अमुम् न वृणुते अथवा वृणुते-उभयथा नः प्रियतमा न एव ( भवेत् ); हि एकतः अमूम् अगुपजाम् पिक, अन्यतः भदःप्रतिलम्मः कथम् ? टीका-असौ दमयन्ती यदि चेत् अमुम् नलम् न वृणुते न वृपाति, वरत्वेन गृहातीत्यर्थः अथवा वृणुते समयथा दाभ्यामेव प्रकाराभ्याम् नः अस्माकम् ममेत्यर्थः ( आदरार्थं ब० व) प्रियतमा प्रेयसी नैव मवेत् इति शेषः हि यतः एकतः प्रथमविकल्पे अमूम् एताम् न गुणान् जानातीति तथोक्ताम् ( उपपद तत्पु०) दमयन्ती धिक् तस्यै धिक्कारः, सौन्दर्यातिशयावतारं नलं विहाय मम वरणे तया अगुप्पशया अहं किं करिष्यामि 1 अगुप्पशा मूर्खा पत्नी कस्यापि प्रियतमा न मवतीत्यर्थः। अन्यतः विकल्पान्तरे अर्थात् यमावरणे नल-वरणे इति यावत् अमुष्याः अस्याः प्रतिक्षम्मः प्राप्तिः (10 तत्पु० कथम्, न कथमपीति काकुः परपत्नीत्वात् / मदपेक्षया नळे सौन्दर्यगुषम् अधिकं विलोक्य तमेव पृण्वाना तस्यैव प्रियतमा मविष्यति, न तु ममेति मावः / / 66 / / ज्याकरण-उभयथा उमय+यार (पकारवचने)। एकसः, अन्यतः एक अन्य+तस् (सप्तम्यर्थं ) / कथम् किम् +थम् / प्रतिलम्मः प्रति+Vलभू+घञ् ( मावे ) मुमागम /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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