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________________ 125 नैषधीयचरिते स्यादिति कृत्वा पर्वतमुनिना तस्याग्रे निजो न कोऽपि स्वतन्त्र-विचारः स्थापित इत्यर्थः, पर्वतः (गिरिः) अपि इन्द्रस्याग्रे मा तावदेष छिनत्तु इति भयात् स्वं पक्षं ( गरुत् ) न दर्शथति स्मेति भावः / / 44 / / - व्याकरण-नारदोयम् नारदस्येदमिति नारद+छ, छ को ईय / उदितम् / वद्+क्त (मावे) सम्प्रसारण / प्रतिनेदे-प्रति+/नद्+लिट् (आत्मने०) कर्मवाच्य / ०च्छेदिन छिद्+ पिनि ( ताच्छोल्ये ) अदर्शि-/दृश +लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-पर्वत ( मुनि ) ने नाद (मुनि ) का गम्भीर उदित ( कथन ) सुनकर उसका अनुमोदन किया / इन्द्र के आगे स्वयं अपना कोई भी पक्ष-विचार–प्रकट नहीं किया / ( जैसे पर्वत ) ( पहाड़ ) नारद-मेघ का गम्भीर (गहरा) उदित-गर्जन-शब्द ग्रहण करके उसे प्रतिध्वनित कर देता है / पक्षों ( पंखों ) को काट डालने वाले ( इन्द्र ) के आगे अपना कोई भी पक्ष ( पंख) नहीं प्रकट करता। // 44 // टिप्पणी-ध्यान रहे कि सगं के प्रारम्भ (श्लो० 2 ) में कवि ने पर्वत शब्द को लेकर, जो वाक्छल अपनाया था, उसे यहाँ मी फिर दोहरा दिया है। विद्याधर ने यहाँ श्लेषालंकार माना है, लेकिन श्लेष में तो दोनों अर्थ प्रस्तुत होते हैं। यहाँ इन्द्र के साथ नारद और पर्वत को बातचीत के प्रसंग में पहाड़, मेघ, उसकी गहरी गर्जना आदि का भला क्या सम्बन्ध ? यह सब अप्रस्तुत ही है किन्तु कवि को विवक्षित है इसलिए इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध जोड़ने के लिए हम यहाँ उपमानोपमेयमाव मानेगे और इसे शब्दशक्त्युद्भव उपमाध्वनि कहेंगे। शब्दालंकारों में 'पर्वते' 'पर्वत' 'पक्ष' 'पक्षः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। पाणये बलरिपोरथ भैमीशीतकोमलकरग्रहणाहम् / भेषज चिरचिताश निवासव्यापदामुपदिदेश रतीशः // 45 // भन्वय-अथ रतीशः बलरिपोः पाणये चिर...पदाम् भैमी.. ग्रहणाहम् भेषजम् उपदिदेश / टीका-अथ नारदगमनानन्तरम् रत्याः एतदाख्या या स्त्रिया: ईशः स्वामी कामदेव इत्यर्थः (10 तत्पु०) बलस्य राक्षसविशेषस्य रिपोः शत्रो: घातकस्य इन्द्रस्येत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) पाणये हस्ताय चिरम् चिरात् चिताः संचिताः राशीभूता इति यावत् ( सुप्सुपेति स०) प्रशनिवासव्यापदः (कर्मधा० ) अशनेः वज्रस्य वासः स्थितिः (10 तत्पु० ) तेन तज्जनिता इत्यर्थः याः व्यापहः विशिष्टा आपदः क्षतानि दाहा इति यावत् ( तृ० तत्पु० ) तासाम् भैम्याः दमयन्त्याः शीतकोमलकर० (प० तत्प०) शीतः शीतलश्चासौ कोमलो मृदश्चासौ करः हस्तः ( उभयत्र कर्मधा० ) तस्य ग्राः ग्रहणम् ( 10 तत्पु० ) दमयन्त्या सह विवाह इत्यर्थः एव अह योग्यं भेषजम् औषधम् ( 'भेषजौषधभैषज्यानि' इत्यमरः) उपदिदेश उपदिष्टवान् भादिष्टवानिति यावत्-कामदेवेन इन्द्रः प्रेरितः स्वम् दमयन्त्याः शीत-कोमल-करग्रहणं कुरु येन वज्रग्रहणजनित: तव कर-सन्तापः शान्तो भविष्यतीति मावः // 45 // ग्याकरण-भैमी भोमस्यापत्यं स्त्री इति भीम+ अ + ङीप् / प्रापद्-आ+ पद्+क्विए (मावे ) / ग्रहः ग्रह +अच् ( मावे ) / अहम् अहंतीति /अर्ह + अच् ( कर्तरि ) / उपदिदेश रुप+/दिश लिट् /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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