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________________ 283 नैषधीयचरिते ताभ्यामभूयुगपदप्यभिधीयमानं 'मेदग्यपाकृति मिथःप्रतिघातमेव / श्रोत्रे तु तस्य पपतुर्नृपतेर्न किञ्चिनभ्यामनिष्टशतशश्तियाकुलस्य // 117 / / अन्वयः-ताभ्याम् युगपत् मेदे-व्यपाकृति अपि अमिधीयमानम् मिथःतिघातम् एव अभूत् , तु भैम्याम् अनिष्टशत शङ्कितया आकुलस्य नृपतेः श्रोत्रे न किन्चित् पपतुः / टीका-ताभ्याम् मन्त्रिप्रवरागदंकाराभ्याम् युगपत एककालम् भेदस्य मिन्नतायाः शब्दानां स्वरूपभेदस्येत्यर्थः व्यपाकृतिः निराकरणं (10 तत्पु० ) यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० बो०) एकैः एव शन्दैरित्यर्थः अपि अभिधीयमानम् कथ्यमानम् कथनमिति यावत् मिथः परस्परम् प्रतिघातः विरोधः (सुप्सुपेति समास: ) यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) मिन्नमित्यर्थः एव अभूत् सुरक्षाधिकारपः स्वास्थ्याधिकारिणश्च युगपदुक्तं वाक्यम् यद्यपि शन्देषु समानम्, तथापि अथें तरसुतरां मिन्नमेवासोदिति मावः। तु किन्तु भैम्याम् निजपुत्र्याः दमयन्त्या विषये अनिष्टानाम् अनर्थानां यत् शतम् शताख्यसंख्या ( 10 तत्प०) वेन शङ्कितुं शीलमस्येति ०शङ्की (उपपद तत्पु०) तस्य मावः तत्ता तया भाकुलस्य विहलस्य नृपतेः राशो माभस्य श्रोने कौँ न किञ्चित् पपतुः पोतवती, कन्याविषयकानिष्टपरम्पराकृतव्याकुलतायाः कारणात् राज्ञा द्वयोरेवाधिकारियो: वचनं नैव श्रुतमिति मावः // 117 // व्याकरण-व्यपाकृतिः वि+अप++/+क्तिन् (मावे ) / अमिधीयमानम् अमि+Vधा+शानच् ( कर्मवाच्य ) / प्रतिघातः प्रति- इन्+घञ्, ह को घादेश। श्रोत्रम् भूयतेऽनेनेति श्रु+ष्ट्रन ( करणे ) / पपतुः/पा+लिट दि० व०।। अनुवाद-उन दोनों ( मन्त्रि-प्रवर और चिकित्सक ) द्वारा बिना भेद के समान रूप सेएकसाथ कही जाती हुई मी बात परस्पर विरोधी-मिन्न ही थी, किन्तु दमयन्ती के विषय में सैकड़ों अनिष्टों की शंका से व्याकुल हुए राजा के कान कुछ भी न सुन पाए // 117 // टिप्पणी-यहाँ कविने मानव-मनोविज्ञान की यह बात बताई है कि जहाँ स्नेह हुआ करता है, वहाँ स्नेह-पात्र के सम्बन्ध में हृदय में अनेक अनिष्टों की शका हो उठती हैं कि पता नहीं वह ठीक होगा मा या नहीं। कालिदास और हर्ष वर्धन ने मी कहा है-'स्नेहः पाप- ( = अनिष्ट- ) शङ्को' / मारवि का भी यही कहना है-'प्रेम पश्यति मयान्यपदेऽपि / अनिष्टशंकाकुल राजा दोनों अधिकारियों को अनसुनी कर देता है, तो यह स्वामाविक ही है। इसीलिए विद्याधर यहाँ स्वभावोक्ति मानते हैं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। छन्द यहाँ वसन्ततिलका है, जिसका लक्षण यह है-'उक्ता वसन्ततिलका त-म-जा-जगौ-गः' अर्थात् इसमें 14 वर्ण होते हैं, जिसका गपक्रम त, भ, ज, ज, ग, ग है। द्रुतविगमितविप्रयोगचिह्वामपि तनयां नृपति: पदप्रणम्राम् / भकलयदसमाशुगाधिमग्नां झटिति पराशयवेदिनो हि विज्ञाः // 118 // भन्वय-नृपतिः दूत चिह्नाम् अपि पद-प्रणम्राम् तनयाम् असमा.. मनाम् अकलयत; हि विशा झटिति पराशयवेदिनः ( भवान्त ) / टीका-नृपतिः मोम-महीपतिः द्रुतम् शीघ्रं यथा स्यात्तथा विगमितानि दूरीकृतानि 1. भेदव्ययाकृति।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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