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________________ चतुर्थसर्गः चरकः गुप्तदूतः तस्य उक्केन कथनेन अहम् अखिलम् सर्व रहस्यमिति शेषः जाने वेभि, नलदम् नलम् एतदाख्यनृपम् ददाति प्रापयतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०) विना अन्तरेग्य अस्याः मवरकन्यायाः तापस्य संतापस्य दलने अपाकरणे न कोऽपि चमः समर्थ: स्यात, अर्थात् इयं नलेऽनुरज्यति, यः पुरुषः तो नलेन मंयोजयति, स एवास्याः सन्तापहरः इति मन्त्रिप्रवरस्योत्तरम्-'देव, सुश्र तेन एतदाख्यवैद्यकग्रन्थेन चरकस्य एतनाम्न आयुर्वेदाचार्यस्य च उक्तन कथितेन चरकसंहिताग्रन्थेने. त्यर्थः अहम् अखिलं ( निदानं ) जाने यत् नलदम् उशीरम् / शत्यापादकतृणविशेषम् ( 'अस्योशीरम स्त्रयाम् अमयं नलदं सेव्यम्' इत्यमरः ) विना अस्याः तापस्य ज्वरस्य दलने शमने न कोऽपि क्षमः स्यात् अर्थात् उशीरेणेवास्थाः तापः शमयितुं शक्येत नान्येन प्रकारेण / / 116 / / ज्याकरण-अधीकार अधि+V+घञ् 'उपसर्गस्य चन्यमनुष्ये बहुलम्' (6 / 3 122 ) से विकल्प से उपप्तर्ग के इकार को दीर्घ, जैसे परीपाकः परिपाकः, प्रतिकारः प्रतीकारः इत्यादि / अगदंकारः न गदो रोगो र स्य तथाभूतः ( नञ् ब० वी० ) अगदं नीरोगं करोतीति अगद ++ अण ( कर्मणि ) मुम् का आगम ( 'रोगहार्यगदंकारः' इत्यमरः)। चरकः चरतोति /चर + अच् (कर्तरि ) चरः+कः ( स्वाथें ) / नलदः नलं ददातीति नल+ दा+कः।। अनुवाद-जिनकी जिम्मेवरी के कारण कन्या के अन्तःपुर ( गृह, शरीर ) में बाधा पहुँचाने हेतु दोष ( अनिच्छित पुरुष आदि के प्रवेश से होने वाली गड़बड़ियाँ; वात, पित्त आदि से होने वाली व्याधियों ) नहीं होने पाते थे, वे मंत्री-प्रवर और चिकित्सक दोनों राजा को एकसाथ, एक ही शब्दों में बोल उठे-( मंत्री) "महारान, सुनिए सुश्रत ( अच्छी तरह सुने ) चरक ( गुप्त चर ) के कथन से मैं ( रहस्य की ) सब बात जानता हूँ। नलद ( नल राजा को दिलाने वाले व्यक्ति ) के विना इस ( कन्या) के ताप ( कष्ट ) को मिटाने में (अन्य ) कोई समर्थ नहीं है"; (चिकित्सक ) "महाराज, सुनिए; सुभुत ( वैद्यक के ग्रन्थविशेष ) और चरक (आयुर्वेद के एक प्रकाण्डविद्वान के कथन -चरकसंहिता) से मैं सारी (निदान को) बात जानता हूँ। नलद ( उशीर, खस-खस ) के बिना इस कन्या का ताप ( ज्वर ) शान्त करने वाला ( अन्य ) कोई (साधन) नहीं हो सकता है" // 116 // टिप्पणो-दमयन्ती को मूर्छा आने से सखियों में मचा हुआ कोलाहल बाहर के लोगों ने सुन लिया। खबर राजा तक पहुँच गई। वे तत्काल रक्षाधिकारी और स्वास्थ्याधिकारी को साथ लेकर कन्यान्त:पुर पहुँच गए। दोनों अधिकारियों द्वारा की गई जाँच पड़ताल के बाद दोनों ने राजा को एकजैसा ही उत्तर दिया कि बिना 'नलद' के लड़की का ताप मिटाने हेतु अन्य कोई उपाय नहीं है। कवि की शिलष्ट भाषा यहाँ बड़ा चमत्कार दिखा गई है। दोनों अर्थ-नल के लिए तड़पन और कामज्वर-प्रकृत होने से श्लेषालंकार है, जो कहीं सभंग है और कहीं अभंग मी है। विद्याधर ने कन्या के साथ दोनों प्रकृत प्रकृतों का एकधर्माभिसम्बन्ध होने से तुल्ययोगिता मानी है, जो श्लिष्ट है। श्लेष के साथ दूसरा शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन-नियम के अनुसार यहाँ 'शार्दूलविक्रीडित छन्द है। जिसका लक्षण यह है-"सूर्याश्वर्यदि मः सजो सततगाः शार्दूलविकोडितम्" अर्थात् जिसमें 19 वर्षों का क्रम इस तरह हो-म, स, ज, स, त, त, ग।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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