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________________ चतुर्थसर्गः 269 बगत्पीडकं काममित्रं मधुं ( वसन्तं ) न विनाश्य मधुनामधारिणं राक्षसं मृत्यु नयता न कोऽपि जगदुपकारः कृत इति भावः / / 99 // व्याकरण-शम्भुः शम् ( कल्याणम् ) भवत्यस्मादिति शम् +VS+डुः / शान्तिक शान्तिः प्रयोजनमस्येति शान्ति+ठक् ('प्रयोजनम्' 5 / 11109) / हविः हूयते इतिVE+असुन् ( कर्मणि / / हतवता/हन् + क्तवत् (कर्तरि ) तृ० / अनुवाद-शङ्कर ने ( अपने ) नेत्र की ज्वाला में तुझे लोक-शान्ति-प्रयोजक यज्ञ में आहुति बनाया-यह ठाक हा किया, ( किन्तु ) खेद की बात है कि तेरे सखा मधु ( वसन्त ) को छोड़कर ( उसके नाम-राशि ) मधु ( राक्षस ) को मारने वाले विष्णु ने क्या किया ? टिप्पणी-जगत् में जब कोई महामारी युद्ध, सूखा आदि उपद्रव होते हैं तो उनके निराकरण हेतु शान्ति यश किये जाते हैं। काम भी एक महान् उपद्रव है, इसलिए यज्ञ द्वारा उसका निराकरण ठीक ही है। यहाँ काम पर यश की आहुति का आरोप होने से रूपक अलंकार है। विद्याधर ने अतिशयोक्ति मी कहा है, किन्तु यहाँ मधु, मधु में कोई भभेदाध्यवसाय नहीं, दोनों भिन्न 2 शब्द द्वारा प्रतिपाद्य हैं मले हो शब्द स्वरूपतः एकाकार क्यों न हों। शम्भु शब्द के सामिप्राय विशेष्य होने से परिकराकर है / शब्दालकारों में मधुम्, मधुम् में यमक, स्य, स्य में छेक, हत, बत में पदान्तर्गत अन्त्यानुपास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विष्णु द्वारा मधु-विनाश के सम्बन्ध में पीछे कोक 66 देखिए / इति कियद्वचसेव भृशं प्रियाधरपिपासु तदाननमाशु तत् / अजनि पांशुलमप्रियवाग्ज्वलन्मदनशोषणबाणहतेरिव // 10 // अन्वय-प्रियाधर-पिपासु तत् तदाननम् इति कियद्वचसा एव अप्रिय 'हतेः इस भाशु पाशुलम् अजनि। टीका-प्रियस्य वल्लमस्य नलस्येत्यर्थः अधरम् अधरोष्ठम् ( 10 तत्पु० ) पिपासु पातुमिच्छु ( 'मधुपिपासुप्रभृतीनां गम्यादिपाठात् समासः' इति वामनाचार्यवचनात् ( द्वि० तत्पु० ) तत् प्रसिद्धम् तस्या दमयन्त्या प्राननम मुखम् इति उक्तप्रकारेण कियत् च तत् वचः वचनम् ( कर्मधा०) तेन एव अल्पमेव कथयित्वेत्यर्थः अप्रिया कठोरा सोपालम्भेत्यर्थः या वाक् वाणी ( कर्मधा० ) तया ज्वलन् दह्यमानः क्रुद्ध इति यावत् ( तृ० तत्पु० ) यो मदनः कामः ( कमा० ) तस्य यः शोषणः शोषणाख्यः (10 तत्पु० ) या बाणः / कर्मधा० ) तस्य हतिः हननम् प्रहार इत्यर्थः (घ. तत्पु.) तस्या इव सम्भावनायाम् आशु शीघ्रम् पांशुलम् पांशुयुक्तम् शुष्कमिति यावत् प्रजनि जातम् / चन्द्र कामं च प्रति ईषदुपालम्भवचः कथयित्वैव सा शुष्ककण्ठाऽमवदिति भावः // 10 // - व्याकरण-पिपासु पातुमिच्छु इति /पा+सन्+3: ( कर्तरि ) / वचस् उच्यते इति Vवच् +असुक् / शोषणः शोषयन्तीति /शुष्+पिच् + ल्युः (कर्तरि ) / इतिः हन् +क्तिन् ( मावे ) / पौशलम् पांशुः मस्मिन्नस्तीति पांशु+लच् ( मतुवर्थ ) / अनुवाद-प्रियतम के अधर ( रस ) का प्यासा उस ( दमयन्ती) का वह प्रसिद्ध मुख (चन्द्रादि
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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