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________________ चतुर्थसगः अन्वयः-उमापतिः मद-मुदान्धम् अयोगि-जनान्तकम् एककम् भवन्तम् यत् अजयत् ततः एव स भगवान् मदनान्धकमृत्युजित् न गीयते किमु ? टीका-मायाः पावस्याः पतिः मा शिव इत्यर्थः मदो गर्वश्च मुद् हर्षश्च तयोः समाहारः इति मद-मुद् ( समाहार इन्द्र ) तेन मदानन्दाभ्याम् अन्धयति अन्धं करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) योगिनः वियोगिनश्च ते जनाः ( कर्मधा० ) तेषाम् अन्तकम् यमतुल्यम् ( 10 तत्पु०) एककम् केवलम् भवन्तम् त्वाम् यत् अजयत् पराऽभवत् , सतः तस्मादेव कारणात् स भगवान् उमापतिः मदनः कामश्च अन्धकः राक्षसविशेषश्च मृत्युः यमश्चेति (इन्द्र ) तान् जयतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) न गीयते स्तूयते किमु किम् ? अर्थात् त्वम् ( कामिनाम् ) मदनः, अन्धकः मृत्यु समश्चासि, त्वामेकमेव जित्वा शिवः मदनजित् , अन्धकजित् तथा मृत्युजित् इति नामत्रयं प्राप्तवानिति प्रतीयते / / 97 // __ व्याकरण-मुद्/मुद्+क्विप ( भावे ) / अन्धः अन्धयतीति / अन्ध (चु.)+अच (कर्तरि ) / एककम् एक+कः ( स्वार्थे ) मृत्युजित् /जि+क्विप् ( कर्तरि ) भगवान् इसके लिए पीछे श्लोक 15 देखिए / अनुवाद-महादेव ने मद और आनन्द से अन्धा बना देने वाले ( एवं ) विरही जनों के मृत्यु-तुल्य अकेले जो तुम को जीता, इस कारण ही वे भगवान् ( महादेव ) ( एक साथ हो ) मदनबेत् , अन्धकजित् और मृत्युजित् तो नहीं कहलाते हैं क्या ? // 97 // टिप्पणी-महादेव ने कामदेव, अन्धक (असुर ) और मृत्यु-इन तीनों को पृथक् 2 जीता , लेकिन कवि की कल्पना यह है कि मानो एकदम मदन को हो जीतकर उन्होंने तीन नाम प्राप्त केये हों पृथक नहीं जीते हों; क्योंकि कामदेव के तीन रूप हैं,-(१) वह मदन अर्थात् लोगों को पत्त कर देने वाला है, (2) अन्धक अर्थात् अन्धा बना देता है ('क' प्रत्यय स्वार्थ में है ), (3) अन्त क अर्थात् अन्तक ( यम )-जैसा पीड़क है। एक कामदेव को जीत लिया, तो उसके भीतर विद्यमान मदन, अन्धक और अन्तक रूप मी स्वयं जीतलिये गए समझे। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, निसका वाचक शब्द यहाँ 'किमु' है / किन्तु उसके मूल में मदन, अन्धक, अन्तक के दो विभिन्न अर्थों में श्लेषमुखेन अमेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति है। लेकिन कवि यहाँ कामदेव के 'मदमुदान्धम्' और 'अयोगिजनान्तकम्' में दो रूप बता सका है / उसे मदन, अन्धक और विरहीजनअन्तक-यों बताना चाहिए था / नारायण ने 'मदमुदान्धम्' को 'गर्वहर्षान्धम्' अर्थ किया है अर्थात् कामदेव गर्वहर्ष से अन्धा बना रहता है, जो हमें नहीं ऊँचता। विद्याधर ने यहाँ उत्प्रेक्षा के साथ अतिशयोक्ति न मान कर अपह्नति मानी है, किन्तु अपह्नव यहाँ हमारी समझ में नहीं आया। शब्दालंकारों में वृत्त्यनुप्रास है / 'मद' 'भुद।' 'मद' में वोंकी एक से अधिक वार आवृत्ति में छेक नहीं बन सकता है। अन्धक-यह दिति के गर्भ से उत्पन्न हुआ कश्यप प्रजापति का एक राक्षस पुत्र था, जिसका महादेव ने संहार किया था। स्वमिव कोऽपि परापकृतौ कृती न ददृशे न च मन्मथ ! शुश्रुवे / स्वमदहद्दहनाज्ज्वलतारमना ज्वलयितुं परिरभ्य जगन्ति यः // 9 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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