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________________ नैषधीयचरिते ( उभयत्र प० तत्पु०) न दक्षिणः अनुकूल: अथ च अपसव्यः,अपि तु वामः वकः दुःखकारीति यावत् , विरहिणः कृते यथा चन्द्रोदयो न सुखावहः तथैव दक्षिणानिलोऽपि, उभयस्यैव कामोद्दीपकत्वादिति मावः / यदि असौ मलयानिलो दक्षिण एवेत्याग्रहः, तु तहिं सुमनसः पुष्पं पुष्परूपमित्यर्थः धनुः चापम् भटनौ कोटी ('कोटिरस्याटनिगोधा' इत्यमरः ) नमयन् नम्रीकुर्वन् तव ते बाहुः भुजः, एव / नारायण-शब्देषु-“यथा तव वाहुविरहिषोऽनुकूलस्तथा मलयवायुरपि / विरुद्धलक्षपया उभौ दुःसहावित्यर्थः" // 96 // ___ ज्याकरख-रामनः शमयतीति /शम् + पिच्+ल्युः ( कर्तरि ) / नमयन् /नम् +पिच+ शत् / बाहुः यास्कानुसार 'वाधते इति सतः' अर्थात् जो बाधा पहुँचाता है। अनुवाद-चन्द्रमा के उदय होने पर विमुख ( दुःखित, पश्चिम को मुँह फेरे ) विरही-विरहिणियों के लिए यमदिशा ( दक्षिण ) का वह प्रसिद्ध वायु ( मलयानिल ) दक्षिण ( दक्षिण दिशा का; दायों अनुकूल ) नहीं पड़ता। यदि वह दक्षिण है, तो पुष्प-रूप धनुष को प्रान्त-माग तक झुकाता हुआ तेरा बाहु है / / 66 / / टिप्पणी-यहाँ कवि ने दक्षिण शब्द में श्लेष रखकर अर्थ में क्लिष्टता ला दी है / चन्द्रोदय पर विरही लोग विह्वल होकर चन्द्रमा की तरफ पीठ कर देते हैं, जिससे उनका मुख पश्चिम को हो जाता है, उधर से दक्षिण का वायु उनके लिए ( अनुकूल दायाँ ) नहीं रहता, वल्कि वाम ( प्रतिकूल, बायाँ ) पड़ जाता है, इसलिए दक्षिण वायु दक्षिण न रहा। यदि दक्षिण वायु दक्षिण ही रहता है-यही प्राग्रह है, तो मानना पड़ेगा कि वह धनुष को खूब ताने हुए कामदेव का दक्षिण ( दायाँ) हाथ है। दक्षिण शब्द के यहाँ कवि ने तीन अर्थ-दक्षिण दिशा का, दायों और अनुकूल ( सुखदायक ) किए हैं / आशय यह निकला कि दक्षिण का वायु यद्यपि दक्षिण कहलाता है, किन्तु विरहियों के लिए वह दक्षिण अर्थात् अनुकूल नहीं पड़ता, कष्टकारक ही होता है, क्योंकि वह शमन-यमकी दिशा से होकर आता है, क्यों न मारक हो ? यदि वायु को दक्षिण ही कहना है, तो हमें यह कल्पना करनी पड़ेगी कि वह कामदेव का धनुष तानकर मार करने वाला दक्षिण ( दायाँ ) हाय है। दक्षिण ( अनुकूल ) पवन उसे हम कभी नहीं कहेंगे। इस तरह यहाँ दक्षिण के विभिन्न अर्थ होने पर भी उनका अभेदाध्यवसाय होने से श्लेष-गर्भित मेदे अमेदातिशयोक्ति है। वायु के दक्षिण होने पर भी दक्षिण न होना कहना विरुद्ध बात है, दक्षिण का अनुकूल अर्थ करने पर उसका परि. हार हो जाता है, इसलिए विरोधाभास भी है। दक्षिण पवनत्व का प्रतिषेध करके कामवाहुत्व की स्थापना में अपगुति भो है / 'शमन-दिक्-पवन' के साभिप्राय विशेष्य होने के कारण कुवलयानन्दा. नुसार परिकराङ्कुर भी है, इसलिए इन सबका यहाँ संकर है। शब्दालकारों में 'दक्षिणः' 'दक्षिणः' में यमक और अन्त्यानुपास 'मन' 'मन' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अर्थ में क्लिष्टत्व दोष है। किमु भवन्तमुमापतिरेककं मदमुदान्धमयोगिजनान्तकम् / यदनयत्तत एव न गीयते स भगवान् मदनान्धकमृत्युजित् // 97 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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