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________________ चतुर्थसर्गः अनुवाद-हें अनङ्ग ! खेदकी बात है कि फूलों से महादेव के साथ युद्ध करते हुए तूने जो फल अर्थात् आत्मविनाश प्राप्त किया, उससे मय खाये हुई नीति फूलों से मी युद्ध करना नहीं चाहती // 81 // टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ उत्प्रेक्षा मानी है, मानो नीति फलों से लड़ते हुए कामदेव का विनाश देखकर डर जैसी गई हो। यह उत्प्रेक्षा वाचक पद के अभाव में प्रतीयमान ही है / हमारे विचार से यहाँ नीति का चेतनीकरण होने से समासोक्ति और अपि शब्द के बल से शस्त्रादि द्वारा लड़ना तो दूर रहा-इस अर्थान्तर की आपत्ति से अर्थापत्ति भी है। युद्ध से मय-मीत नीति यह कहती है-"पुष्पैरपि न योद्धव्यं किं पुननिशितैः शरैः" / 'विगृह्णता' 'विग्रह' में छेक और अन्वय वृत्त्यनुप्रास है। अति धयनितरामरवत्सुधां त्रिनयनात्कथमापिथ तां दशाम् ? / भण रतेरधरस्य रसादरादमृतमात्तघृणः खलुः नापिबः ? // 82 // अन्वय-(हे स्मर ! ) इतरामरवत् सुधाम् धयन् अपि ( स्वम् ) त्रिनयनात् ताम् दशाम् कथम् आपिथ; रतेः अधरस्य रसादरात् आप्त-घृणः ( स्वम् ) अमृतम् न खलु अपिबः, मण / टीका-(हे स्मर ! ) इतरे अन्ये अमराः देवाः ( कर्मधा० ) इत्र ०वत् सुधाम् अमृतम् धयन् पिबन भपि त्वम् त्रीणि नयनानि यस्य तस्मात् ( ब० प्रा० ) महादेवात् महादेवसकाशादित्यर्थः ताम् तादृशीम् भस्मसाद्भवनरूवा दशाम् अवस्थाम् कथम् कस्मात् प्रापिथ प्राप्तवान् ? सुधा-पानेन तु इन्द्रादयो देवा अमरा अभवन् . त्वं तु अमरो नामवः, किमत्र कारणम् ? रते. स्वपत्न्याः अधरस्य अधरोष्ठस्य रसे स्वादे अादरात् आसक्तेः कारणात् ( स० तत्पु०) प्रवासा प्राप्ता घृणा जुगुप्सा अमृते इति शेषः येन तथाभूतः (ब० वी० ) स्वम् अमृतम् सुधाम् न खल अपिबः पीतवान् असि भगा वद। अमृतापेक्षया त्या अधरोष्ठे मार्यातिशयं प्राप्य स्खया नामृतं पोतमिति भावः / / 82 / / व्याकरण-धयन्/धे+शतृ / प्रापिथप्राप्+लिट्, इडागम / अधरस्य रसादरात् यहाँ अधर का रस के साथ सम्बन्ध होने से उसका आदर से समास कर देना असमर्थ-समास है जो नहीं होना चाहिये 'पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु पदार्थंकदेशेन' / यहाँ उत्तरार्ध-वाक्य 'मण' क्रिया का संशात्मक कर्म है। अनवाद-(हे कामदेव ! ) अन्य देवताओं की तरह अमृत पीते हुए मी तू महादेव के हाथों उस दशा को कैसे प्राप्त हो गया ? रति के अधर-रस के प्रति लगाव होने के कारण तूने ( अमृत से) घृणा किये सचमुच अमृत पिया ही नहीं, बोल तो सही / / 82 / / टिप्पणी-यहाँ विद्याधर ने खलु शब्द को सम्भावना-वाचक मानकर उत्प्रेक्षा कही है। हमारे विचार से यहाँ अनुमानालंकार है, क्योंकि कामदेव के मरण रूपी लिंग से उसके अमृतपानाभाव का अनुमान किया गया है। 'रस्य' 'रसा' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। यहाँ उद्दश-प्रतिनिर्देश माव सम्बन्ध की मांग के अनुसार सुधा शब्द से किये हुए उद्देश का प्रतिनिर्देश सुधा शब्द से ही होना
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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