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________________ 254 नैषधीयचरिते अनुवाद-जितेन्द्रिय बुद्धने (तुझे ) परास्त करके तेरी विशाल यश रूपी देह ध्वस्त कर दी थी, इसीलिए जितेन्द्रिय महादेव ने युद्ध में तेरी मौतिक बची-खुची देह समाप्त कर दी / / 80 // टिप्पणी-यहाँ जितेन्द्रिय शब्द देहली दीपक न्याय से दोनों श्लोकाओं के साथ सम्बन्ध रखता है / यश पर तनुत्वारोप होने से रूपकालंकार है। 'जित्य' 'जिते' तथा 'तनुं' 'तनू' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सुगत-बुद्धचरित के अनुसार बुद्ध मगवान् जब तत्त्व-शान हेतु समाधि में बैठे, तो इन्द्र जल उठा। उसने अप्सराओं को साथ लिये कामदेव को उनकी समाधि भंग करने के लिए भेज दिया / काम ने पहुँचते ही अपना पूरा जोर लगाया, लेकिन बुद्ध को समाधि से जरा भी न डिगा सका / काम का सारा दल-बल देखते-देखते रह गया। उसे अपनी हार मानकर वापस जाना पड़ा / इस तरह सभी को विचलित कर देने की जगत में फैली कामदेव की विपुल कीर्ति पर जितेन्द्रिय बुद्ध ने पानी फेर दिया। हर-कुमारसम्भव के अनुसार स्वर्ग में देवता लोग तारकासुर के मारी अत्याचारों से तंग आकर ब्रह्मा के पास पहुँचे तो उन्होंने यही उपाय बताया कि महादेव का पार्वती से विवाह हो जाय / उनसे उत्पन्न कुमार ही तारकासुर का वध कर सकेगा, अन्य किसी की ताकत नहीं / महादेव देखो, तो सतीके भस्म हो जाने के बाद विरक्त हो कैलास में समाधिस्थ रह रहे थे। क्योंकर फिर विवाह के चक्कर में पड़ते ? लेकिन इन्द्र ने यह काम कामदेव को सौंप ही दिया। वह निज सखा वसन्त को साथ लेकर कैलास को चल दिया। संयोगवश उसी समय सदाकी भाँति पार्वती महादेव की अर्चना करके पुष्पमाला उनके गले में डाल ही रही थी कि कामदेव ने छिपे-छिपे महादेव पर कसकर बाप छोड़ दिया। महादेव सचमुच क्षणभर के लिए विचलित हो उठे। आँखें खोली, तो सामने कामदेव देखा। तत्काळ क्रोध की हुंकार ने जहाँ कामदेव के बाण को उलटा कर दिया वहाँ तृतीय नेत्र को क्रोधाग्नि ने उसका शरीर मस्म कर दिया। यहाँ कवि द्वारा प्रतिपादित यह घटना. क्रम अर्थात् पहले बुद्ध ( 500 खीष्ट पूर्व ) ने कामदेव का यशःशरीर समाप्त किया और वादको हरने उसका भौतिक शरीर भस्म किया विद्वानों के अनुसन्धान का विषय है। फलमलभ्यत यत्कुसुमस्त्वया विषमनेत्रमनङ्ग ! विगृह्णता / अहह नीतिरवाप्तभया ततो न कुसुमैरपि विठहमिच्छति // 81 // अन्धय-अहह हे अनङ्ग ! कुसुमैः विषम-नेत्रं विगृह्णता त्वया यत् फलम् अलभ्यत, ततः अवाप्त. मया नीतिः कुसुमैः अपि विग्रहम् न इच्छति / टीका-अहह इति खेदे हे अनङ्ग काम ! कुसुमैः पुष्पैः विषमाणि अर्थात् त्रीणि नेत्राणि नयनानि यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) महादेव मित्यर्थः विगृहता प्रतियुद्धयमानेन स्वया यत् फलम् परिणामः आत्मविनाश इत्यर्थः अलभ्यत प्राप्तम्, ततः तस्मात् एव फलात् तत्फलं दृष्ट्वतियावत् नीतिः नीतिशास्त्रम् कुसुमैः पुष्पैः अपि विग्रहम् युद्धम् न इच्छति काङ्क्षति, युद्ध पुष्पैरपि न कर्तव्यं किमुतशस्त्ररिति भावः // 81 // ___ण्याकरण-विषम विगतः सम इति (प्रादिस० ) / विगृहता वि+/ग्रह +शतृ+त। नोतिः नी+तिन् ( मावे ) / विग्रहः वि+/ग्रह् +अप् (मावे ) / 1. निगृहता।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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