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________________ चतुर्थसर्गः 243 तत्पु०) रिपोः शत्रोः कबन्धस्य अवमूर्धकलेवरस्य ('कबन्धोऽस्त्री क्रियायुक्तमपमूर्धकलेवरम्' इत्यमरः) गलेन कण्ठेन (10 तत्पु०) तमः राहु-रूपः ग्रहः ( कर्मधा०) तस्य शिरः मूर्चा तस्य कवन्ध गलस्य यत् असूक् रुधिरम् (प० तत्पु० ) तेन ढबन्धनम् (त. तत्पु०) स्थिरम् च तत् बन्धनम् संघटनम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० बी०) सत् अथवा यस्मिन् कमपि यथा स्यात्तथा (क्रिया वि० ) किम् न मिलति संयुज्यते ? मा तावत् नलेन युद्धयमानोऽहम् म्रियेयेति भीत-मीनस्य, अत एव गगने दूरं पलायमानस्य मध्येगगनमेव च नलेन छिन्नमस्तकीकृतस्य कस्यापि रिपोः कबन्धेन सद्यःस्रवद्रुधिरजातदृढबन्धनं गगनस्थराहुग्रहशिरः संघटतामिति मावः // 68 // व्याकरण-मृतिः/+क्तिन् ( मावे ) / भीः भो+विप् ( भावे ) / विमस्तकितस्य विगतं मस्तकं यस्येति विमस्तकः ( प्रादि ब० बी०) विमस्तकं करोतीति विमस्तक+णिच् + क्तः ( कर्मणि) (नामधातु)। अनुवाद-अपवा युद्ध में मृत्यु मय से दूर ऊपर ( आकाश में ) मागते हुए, ( और वहीं) नल द्वारा ( अस्त्र से ) मस्तक-रहित किये हुए शत्रु के धड़ से गले ( आकाशस्थ ) राहु ग्रह का शिर उसके खून से मजबूती के साथ जमकर क्यों नहीं जुड़ जाता ? // 68 // टिप्पणी-पिछले श्लोक में उल्लिखित राहु-केतु को जोड़ देने वाले अश्विनीकुमार जैसे शल्यचिकित्सक के अभाव में दमयन्ती का दूसरा विकल्प उसकी यह चाह है कि नल के शत्रु के कबन्ध से ही राहु का शिर जुड़ जाथ वैसे तो विष्णु द्वारा राहु का सिर कमी का काटा हुआ सूख गया है। अब जमना मुश्किल है, तथापि शत्रु के ताजा ताजा कटे हुए कबन्ध से बहता हुआ गाढा 2 खून पानी मिला सोमेंट का काम कर देगा जिससे राहु का सिर मजबूती से जम हो जायेगा / राहु का सिर जम जाने से वह चन्द्रमा को अपनी जठराग्नि में भस्म कर देगा। फिर चन्द्रमा ही न रहेगा, तो हम विरहिपियों को कौन सताएगा / न रहेगा बांस, न बजेगो वांसुरी। विद्याधर ने यहां 'किम्' शब्द को उत्प्रेक्षा-वाचक मानकर उत्पेक्षा मानो है, जो हमारी समझ में नहीं आ रही है, 'किम्' यहां स्पष्तः विकल्पार्थक है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है / सखि ! जरां परिपृच्छ तमश्शिरस्सममसौ दधतापि कबन्धताम् / मगधराजवपुर्दलयुग्मवत् किमिति न व्यतिसीव्यति' केतुना ? // 69 // अन्वय-(अथवा ) हे सखि, जराम् परिपृच्छ-'असौ कबन्धताम् दधता अपि केतुना समम् तमश्शिरः मगधराज-वपुर्दलयुग्मवत् किमिति न ब्यतिसीव्यति ? / टोका-( अथवा ) हे सखि आलि ! जराम् एतन्नाम्नी राक्षसीम् परिपृच्छ सम्यक्तया अनुयुवा-"असौ जरा कबन्धताम् अपमूर्धकलेवरताम् दधता वहता अपि केतुना केतुग्रहेण समम् सह तमसः राहोः ( 'तमस्तु राहुः स्वर्भानुः' इत्यमरः) शिरः मूर्धानम् (10 तत्पु०) मगधराजस्य मगधाना राजा तस्य मगवाधिपतेः ( 10 तत्पु० ) जरासन्धस्येत्यर्थः वपुषः शरीरस्य दलयोः ... 1. प्रतिसीण्यति। -. .
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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