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________________ 242 नैषधीयचरिते तुल्यौ अथ च सुहृदौ (प० तत्पु०) दिवः स्वर्गस्य भिषजौ वैद्यौ अश्विनीकुमारी इत्यर्थः स्मरस्य कामस्य वैरिणा शत्रुणा महादेवेनेत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) दलितम् मिन्नम् मखः यश एव मृगः हरिणः तस्य ( कर्मधा० ) शिरः मस्तकम् यथा येन प्रकारेण सपदि तत्कालम् यथा स्यात्तथा संदधतुः संयोजयामासतुः तथा तेनैव प्रकारेण तमसः राहोः ( 'तमस्तु राहुः स्वर्मानुः' इत्यमरः) अपि ककरोतु शिरस्सन्धानं को विदधातु ? न कोऽपीहास्तीत्यर्थः // 67 // व्याकरणा-रुचिः रुच्+कि ( भावे ) / स्मरसखौ समास में सखि शब्द से समासान्त टच् प्रत्यय हो जाने से वह अकारान्त बना हुआ है [ राजाहःसखिभ्यष्टच 5 / 4 / 91 / / अनवाद-हे सखी! सौन्दर्यच्छटा में कामदेव-जैसे उसके मित्र स्वर्ग के वैद्यों ( अश्विनी. कुमारों ) ने जिस तरह कामदेव के शत्रु ( महादेव ) द्वारा काटा हुआ यश-रूप मृग का शिर तत्काल जोड़ दिया था, वैसे हो राहु का भी शिर कौन जोड़े ? // 67 // टिप्पणी-कामदेव-जैसे सुन्दर अश्विनीकुमार कामदेव के मित्र थे। देवता-देवता जो ठहरे। कामदेव के दुश्मन-शिव-ने मृगरूप धारण किये यश का शिर काटा तो यह ठीक ही था कि कामदेव के मित्र अश्विनीकुमार अपने मित्र के दुश्मन के कार्य को विफल कर दें। शिव यदि कामदेव के शत्रु थे, तो वे अश्विनीकुमारों के भी तो शत्रु ही हुए किन्तु खेद है कि विरही-विरहिणियों के शत्रु विष्णु द्वारा काटे हुए राहु का भी सिर जोड़ देने वाला विरहियों का अश्विनीकुमारों जैसा मित्र नहीं है। राहु का शिर जुड़ जाता, तो उसके पेट में चन्द्रमा ने हज्म हो जाना था। स्मर-सखा में उपमा है, साथ ही श्लेष भी है। दण्डी ने सखा-जैसे शब्दों का सादृश्य में पर्यवसान मान रखा है। दूसरो उपमा यथा शब्द द्वारा वाच्य है। इस तरह यहाँ दोनों उपमाओं की संसृष्टि है। 'स्मर' 'स्मर' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मखमृगस्य-पीछे श्लोक 45 में उल्लिखित सतीदाह के सम्बन्ध में हम देख आए है कि जब महादेव यश-स्थल में पहुंचे तो उनका रौद्र रूप देखकर दक्ष सहित सब-के-सब वहाँ से माग निकले। यश भी स्वयं मृग का रूप धारण करके भाग निकला, तो हाथ में पिनाक लिये महादेव ने उसका पीछा किया। इस सम्बन्ध में देखिए कालिदास-कृष्णसारे ददच्चक्षस्त्वयि चाधिज्यकामुके। मृगानुसारिणं साक्षात् पश्यामीव पिनाकिनम् (शकु० 1 / 6) / महादेव ने भागते हुए मन-मृग का शिर पिनाक से काट डाला। लेकिन बाद में अश्विनीकुमारों ने कटा हुआ शिर जोड़ दिया था पुराणों के अतिरिक्त बेद में भी इसका उल्लेख मिलता है-'ततो वै तौ यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्ताम्। नलविमस्तकितस्य रणे रिपोर्मिलति किं न कबन्धगलेन वा। मृतिमिया भृशमुत्पततस्तमोग्रहशिरस्तदसृग्दृढबन्धनम् // 68 // अन्वय-वा रणे मृति-मिया भृशम् उत्पततः नल-विमस्तकितस्य रिपोः कबन्ध गलेन तमोग्रहशिरः तदसग्दृढवन्धनम् ( सत् ) कि न मिलति ? टीका-वा अथवा रणे युद्धे मृतेः मृत्योः भिया मयेन (10 तत्पु० ) भृशम् अतिशयेन अस्पततः उपरि गगने गच्छतः, गगने एव च नलेन विमस्तकितस्य मस्तकरहितीकृतस्त्र (त.
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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