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________________ चतुर्थसर्गः . अन्वयः-ऋजुदृशः पुराविदः मधुमिदम् राहुशिरश्छिदं कथयन्ति किल, विरहि-मूध-मिदम् न निगदन्ति, यदि तज्जठरानलः ( स्यात् ), तदा क्व नु शशी? ____टीका-ऋतुः सरला हा दृष्टिः ( कर्मधा० ) येषां तथाभूताः (20 बी०) निर्व्याजद्रटारः इत्यर्थः पुराविदः ऐतिहासिक-लोकाः मधुम् एतन्नामकम् राक्षसं मिनत्ति हन्तीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) विष्णुमित्यर्थः राहोः विधुन्तुदस्य शिरः मूर्धानम् ( 10 तत्पु० ) छिनत्ति कृन्ततीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) कथयन्ति वदन्ति किलेति वार्तायाम् ( 'वार्ता-सम्मावयोः किल इत्यमरः ) विरहिण्यश्च विरहिणश्चेति विरहिप्पः ( एकशेष-स०) तेषां मूर्धानं शिरः / 10 तत्पु०) भिनत्ति कृन्ततोति तथोक्तं न निगदन्ति कथयन्ति अर्थात् सरल दृष्टयः पौराषिका विष्णुं राहुशिरोमेदकं कथयन्ति, किन्तु वस्तुतः विष्णू राहुशिरश्छेदको भूखा विरहिशिरश्छेदकोऽप्यस्ति, यतः यदि तस्य राहोः जठरस्य उदरस्य अनलः अग्निः ( उमयत्र प० तत्पु० ) अमविष्यत् , तदा क्व नु प्रश्ने शशी चन्द्रमा: प्रभविष्यत्, न क्वापीति काकुः। राहो विष्णुकर्तृकशिरश्छेदाभावे जठरस्य सत्त्वे तज्जठराग्निना चिरात् चन्द्रः समापितः स्यात्, चन्द्राभावे च विरहिणो मरणाद् रशिताः स्युः। तस्मात् अन्ततो गत्वा राहुशिरश्छेदको विष्णुरेव परम्परया विरहिमूर्धमित् सिद्धयतोति भावः // 66 / / __व्याकरण-पुरा विदन्तीति पुरा+/विद्+क्षिप् ( कतार ) ०मिदम् , छिदम् उमयत्र क्विप ( कर्तरि ) / __ अनुवाद-सुनते हैं कि सीधा देखने वाले पौराणिक लोग विष्णु को राहु का शिर काटने वाला कहते हैं, विरहियों और विरहिपियों का शिर काटने वाला नहीं कहते। यदि उस (राहु ) को जठराग्नि होतो ता मला चन्द्र कहाँ होता? // 66 // टिप्पणी-यदि विष्णु राहु का शिर न काटते तो वह अपनी जठराग्नि में चन्द्रमा को कमी का पचा जाता, इसलिए अप्रत्यक्ष रूप में विष्णु ही चन्द्रमा के बचे रहने तथा उसके द्वारा विरहियों के मारे जाने का उत्तरदायी है। विद्याधर ने यहाँ हेतु अलंकार माना है, शब्दालंकारों में 'मिदं' 'छिदं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास,'मिदं' 'मिदं' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / मधुमिदम्-मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कल्पान्त के समय भगवान् विष्णु योगनिद्रा में सो रहे थे कि इतने में उनके कर्ष. मल से उत्पन्न मधु और कैटम नाम के दो राक्षस ब्रह्मा को मारने के लिए तैयार हो उठे। ब्रह्मा पाराये। उन्होंने भगवान को जगाया जिनका उन दो राक्षसों के साथ बड़ा मोषण युद्ध हुमा / अन्त में भगवान ने उनके सिर काट डाले, इसीलिए विष्णु को मधुमिद् , मध्वरि, कैटमारि आदि नामों से पुकारा जाता है। स्मरसखौ रुचिमिः स्मरवैरिणा मखमृगस्य यथा दलितं शिरः / सपदि संदधतुर्भिषजो दिवः सखि ! तथा तमसोऽपि करोतु कः // 67 / / अन्धयः-हे सखि, रुचिमिः स्मरसखौ दिवः मिषनौ स्मर-वैरिणा दलितम् मखमृगस्य शिरः यथा सपदि संदधतुः तथा तमसः अपि कः करोतु ? .. टीका-हे सखि आलि ! पिभिः कान्तिमिः सौन्दर्येवेत्यर्थः स्मरस्य कामस्य समान
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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