SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24. नैषधीयचरिते नव अमृत निकला तो देवता-लोग बड़े प्रसन्न हो गए। विष्णु उसे देवता देवताओं में ही बॉटने जा रहे थे और मोहिनी-रूप धारण करके राक्षसों को टरकाते जा रहे थे। विप्रचित्ति और सिंहिका का पुत्र राहु विष्णु को इस चालाकी को मॉप गया और रूप बदलकर देवताओं की पंक्ति में जा बैठा / सूर्य और चन्द्रमा ने उसे पहचान लिया और तत्काल विष्णु को इसकी सूचना दे दी। विष्णु ने लस राक्षस के गले में अपना सुदर्शन चक्र दे मारा, जिससे उसका गला कट गया, लेकिन थोड़ा सा अमृत उसके गले से नीचे उतर गया था, इसलिये वह मरा नहीं / उसका जीवित शिर राहु और कटा हा धड़ केतु कहलाता है। वह अपनी सूचना देने वाले सूर्य और चन्द्रमा से बदला लेने के लिए इन दोनों को बराबर तंग करता रहता है। विष्णु तो उसका दुश्मन हुआ ही। किन्तु ज्योतिष के अनुसार राहु-केतु दो ग्रह होते हैं। वदनगर्मगतं न निजेच्छया शशिनमुज्झति राहुरसंशयम् / अशित एव गलत्ययमत्ययं सखि ! विना गलनालबिलाध्वना // 65 / / अन्वयः-हे सखि, राहुः वदन-गर्भ-गतम् शशिनम् निजेच्छया न उज्झति ( ति ) असंशयम; / किन्तु ) अयम् अशितः एव अत्ययम् विना गल-नाल-बिलावना गलति / टीका-हे सखि आलि। राहुः विधुन्तुदः वदनस्य मुखस्य गर्ने अभ्यन्तरे ( 10 तत्पु० ) गतम् प्रविष्टम् ( स० तत्पु० ) शशिनम् चन्द्रम् निजा स्वीया इच्छा अभिलाष: तया ( कर्मधा० ) उज्झति त्यजति इत्यसंशयम् संशयस्याभावः ( अव्ययो० स० ) किन्तु अयम् चन्द्रः अशिते भहित एव प्रत्ययम् कृच्छम् ( 'अत्ययोऽतिक्रमे कृच्छ्र' इत्यमरः) कठिनतामित्यर्थः विना अन्तरा गलस्य कण्ठस्य यो नालः दण्डः तस्य यत् बिलम् विवरम् तस्य अध्वना मागंप्य ( सर्वत्र प० तत्पु० ) गलति बहिनिस्सरति // 65 // ज्याकरण-अत्ययः अति+Vs+अच् ( भावे)। अनुवाद-हे सखी, राहु मुँह के मोतर गए हुए चन्द्रमा को स्वेच्छा से नहीं छोड़ता-इसमें सन्देह नहीं किन्तु यह ( चन्द्रमा ) खाया हुआही विना (किसो) कठिनाई के गले की नली के छेद के मार्ग से बाहर निकल जाता है // 65 // टिप्पणी-चन्द्रमा को खाकर राहु हज्म तो तब कर सके, जब राहु का पेट हो और उसके मीतर पहुँचे हुए चन्द्रमा का जठराग्नि से संयोग हो, सो तो बात ही नहीं। दूसरे, यदि राहु का पेट होता, तब मो वह चन्द्रमा का केसे विनाश कर सकता था क्योंकि चन्द्रमा अमृतमय होने से सदा के लिए अमर है। विद्याधर ने यहाँ विरोधामास कहा है, क्योंकि गले के भीतर चला जाना और बाहर निकल जाना—ये दोनों परस्पर विरोधी बाते हैं लेकिन उदरामाव होने से उसका परिहार हो जाता है, किन्तु मल्लिनाथ न मालुम कैसे उत्प्रेक्षा कहते हैं। शब्दालंकारों में 'त्यय' 'त्यय' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। ऋजुदशः कथयन्ति पुराविदो मधुमिदं किल राहुशिरश्छिदम्। विरहिमूर्षभिदं निगदन्ति न क नु शाशी यदि तजठरानलः // 66 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy