________________ 244 नैषधीयचरिते खण्डयोः युग्मम् युगलम् इव (सर्वत्र प० तत्पु० ) किमिति कस्मात् न व्यतिसीव्यति संमेलयति ? अर्थात् यथा जरया मगधराज-शरीरखण्डद्वयस्य सन्धानं कृतमासीत् तथैव त्वया राहु-केत्वोः सन्धानमपि कार्यमिति जरा प्रष्टव्येति भावः // 69 // व्याकरण-दलम् दल्यते इति /दल्+अच् / युग्मम् /युज् +मक ज को कुत्व / अनुवाद-(अथवा) हे सखी ! जरा से अच्छी तरह पूछो कि वह धड़ हो धड़ रखते हुये भी केतु के साथ राहु का शिर उस तरह क्यों नहीं जोड़ देती जैसे उसने मगधराज के शरीर के दो खण्डों को जोड़ दिया था ? // 69 // टिप्पणी-दमयन्ती का तीसरा विकल्प है जरा द्वारा राहु-केतु को जरासन्ध की तरह परस्पर जोड़ देने के लिए पूछना / जरा एक राक्षती थी, जो इधर-उधर पड़ा रुधिर मांस खाया करती थी। एक समय की बात है कि मगध देश पर वृहद्रथ नामक राजा राज्य करते थे / उनकी दो रानियां थीं। किन्तु किसी से मी जब राजा की सन्तान नहीं हुई तो वे दुःखी होकर चण्डकौशिक ऋषि के पास गये और अपनी अनपत्यता का रोना रोने लगे। ऋषि ने राजा को एक आम का फल अभिमन्त्रित करके दे दिया। रानियां फल को काटकर आधा-आधा खा गई दोनों को गर्भ ठहर गया। प्रसवकाल आने पर दोनों का सिर से पैर तक का प्राधा-प्राधा बच्चा जन्मा, तो रानियां बहुत दुःखी हुई और वेकार समझकर उन दोनों टुकड़ों को दासी के हाय बाहर सड़क पर फिंकवा दिया। उधर से जरा राक्षसी घूमती-फिरती आ टपकी। उसे उन दोनों मांस-खण्डों में प्राण दीखा / ले जाने में सुविधा हेतु दोनों को परस्पर मिलाकर ज्यों ही बह ले जाना चाहनी यो कि एक संयुक्त बालक तत्काल जोर जोर से चिल्लाने लगा। राजगृह में खबर पहुँच गई। रानियाँ और राजा आए और अपने बच्चे को घर ले गए / जरा द्वारा दोनों खण्डों को जोड़ने से बने हुये बालक का नाम जरासन्ध रखा गया, जो बाद को एक ऐसा प्रतापी और पराकमो राजा हुआ जिसने भगवान कृष्ण तक के छक्के छुड़ा दिये थे और अपने सतत आक्रमणों से तंग करके उन्हें मथुरा छोड़ सुदूर सौराष्ट्र में द्वारिका बसाने को विवश कर दिया था। श्लोक में उपमा और वृत्त्यनुप्रास अलंकार है। वद विधुन्तुदमालि ! मदीरितैस्त्यजसि किं द्विजराजधिया रिपुम् / किमु दिवं पुनरेति यदीदृशः पतित एष निषेव्य हि वारुणीम् // 70 // अन्वयः-हे आलि ! मदीरितैः विधुन्तुदम् वद-रिपुम् द्विजराज-धिया त्यजाम किम् ? हि यदि ईदृशः ( स्यात् , तहि ) एव वारुणीम् निषेव्य पतितः ( सन् ) पुनः दिवम् किमु एति ?" टीका-हे प्रालि सखि ! मम ईरितः वचनैः ( 10 तत्प० ) ममातिनिध्येनेत्यर्थः त्वम् विधुग्तुदं राहुम् वद कथय पृच्छेत्यर्थः-'रिपुम शत्रुम् चन्द्रमित्यर्थः द्विजानां ब्राह्मणानां राजा श्रेष्ठ इत्यर्थः तस्य धिया बुद्धया ( उभयत्र तत्पु० ) त्वम् त्यजसि मुश्चसि किम् ? 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इति भुति-प्रमाणाद् ब्रामप-वधो निषिद्धः तत्राप्यसौ श्रेष्ठ-ब्राह्मपः। किन्तु एषा तब धीः भ्रान्तिरेव, यतोऽसौ द्विजराज इति रूढामेव संशं वहति न तु यौगिकीम् ब्रह्म= वेदं वेत्तीति भावः हि यतः यदि चेत् इंदशः ब्राह्मणत्वजातिमान् स्यात् , तहिं एष चन्द्रः वारणीम् मदिराम अथ च वरुपदिशा