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________________ 14 चतुर्थसर्गः अनुवाद-अतिशय द्वेष रखने वाली चन्द्रमा को कान्ति घर ( के कमरे ) से बाहर न निकलती हुई उस ( दमयन्ती ) को पाने हेतु 'अन्यथा (द्वारमार्ग से ) मेरा प्रवेश कहीं रोक न दिया जाय' इस मय से मृणाल का मेस धारण किये खिड़की के छिद्रों से होकर तो मीतर नहीं चली गई क्या ? / / 24 / / टिप्पणी-चन्द्र-किरणें दमयन्ती को जलाती रहती थी, इसलिये वह कमरे से बाहर ही नहीं निकलती थो। ठंडक पहुचाने के लिये छाती पर मृणाल-दण्ड रखे वह भीतर ही लेटी रहती। इस पर कवि-कल्पना यह है कि श्वेत मृणाल मृणाल न हों, मानों चन्द्र-किरणे हों, जो डर के मारे दरवाजे से न घुसकर छिपो छिपो खिड़की के रास्ते उसे जलाने मृणाल के वेश में मीतर घुस आई थी / शत्रु प्रहार करने हेतु छिपकर वेश बदले चोर रास्ते से ही आया करता है। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसका चन्द्र कान्ति के चेतनीकरण से बनी समासोक्ति के साथ संकर है। 'विस' 'वेश' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। हृदि विदर्मभुवोऽश्रभृति स्फुटं विनमदास्यतया प्रतिबिम्बितम् / मुखहगोष्ठमरोपि मनोभुवा तदुपमाकुसुमान्यखिलाः शराः // 25 // अन्वयः-विनमदास्यतया विदर्भभुवः अश्रु-भृति हृदि प्रतिबिम्बितम् मुख-दृगोष्ठम् मनोभुवा तदुपमा-कुसुमानि अखिलाः शराः ( सत् ) भरोपि स्फुटम् / टीका-विनमत् नम्रीभवत् पास्यं मुवम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतायाः (ब० वी०) मावः तत्ता तया मुखस्य नीचैः करपहेतुनेत्यर्थः विदर्भेभ्यः भवतीति तथोक्तायाः दमयन्त्या इत्यर्थः अश्रु वाष्पं बिभर्ति धारयतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) हृदि वक्षसि प्रतिबिम्बितम् प्रतिफलितम् मुखम् आस्यं च दृशौ नयने च भोष्ठौ दन्तच्छदौ च तेषां समाहार इति मुखदृगोष्ठम् ( समाहार द्वन्द्वः ) मनोभुवा मनः भूः उत्पत्तिस्थानं यस्य तथाभूतेन ( ब० वी० ) कामदेवेनेत्यर्थः, तस्य मुखदृगोष्ठस्य उपमायाः तुलनायाः कुसुमानि पुष्पाणि उपमानभूतानि पुष्पाणीत्यर्थः ( उभयत्र प० तत्पु० ) कमलनीलोत्पल-बन्धूकानि तद्रपाणि अखिलाः पञ्चेत्यर्थः शराः नाप्पाः अरोपि आरोपितम् स्फुटम् इव / अश्रुप्लुते दमयन्ती-वक्षसि प्रतिबिम्बितानि तस्या मुखं, नेत्रद्वयं, ओष्ठ द्वयश्चेत्येतानि पञ्चाङ्गानि तस्याः हृदये कामदेवनिखातानि पञ्च पुष्पात्मक-वाणा इव प्रतीयन्ते स्मेति भावः / / 25 / / व्याकरण-आस्यम् अस्यते क्षिप्यते अन्नादिकम् अत्रेति / अस्+ण्यत् ( अधिकरणे)। अशुभृत् अश्रु+भृञ् +क्विप् ( कर्तरि)। प्रतिबिम्बितम् प्रतिगतो बिम्पः प्रतिबिम्बः (प्रादि तत्षु०) प्रतिबिम्ब ( प्रतिबिम्बयुक्तम् ) करोतीति प्रतिविम्ब+णिच् ('सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते') +क। अरोपि/रुह्+पिच पुगागम+लुङ् ( कर्मणि ) / अनुवाद-मुख नीचे किये होने के कारण विदर्भ राजकुमारी की आँसू-मरी छाती पर प्रति. बिम्बित हुआ उसका चेहरा, भौखें और होंठ ऐसे लग रहे थे जैसे कि कामदेव ने उन्हीं के उपमान बने ( अपने ) पुष्परूप सारे (पाँच ) बाप गाड़ रखे हो // 24 // टिप्पणी-छाती पर अपनी परछाई डाले दमयन्ती के चेहरे, दो आँखें और (अधरोष्ठ, उपरोष्ठ)
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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