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________________ 30 नैषधीयचरिते दो ओंठों पर कवि ने यह कल्पना की है कि मानों वे कामदेव के उसके हृदय में मारे हुए फूलों के पाँच बाप हो। कामदेव को 'पञ्चबाण' कहा जाता है जिसके प्रसिद्ध पाँच बाप ये हैं'भरविन्दमशोकञ्च चूतं च नवमल्लिका / नीलोत्पलं च पञ्चते पश्चबासस्य सायकाः' / इनमें से मुख का अरविन्द, आँखों के नीलोत्पल आर ओठों के अशोक, उपमान बन सकते हैं, हेकिन चूत और नवमल्लिका छूट जाते हैं / अतः सारे बाप नहीं बन पाये। नारायण और मल्लिनाथ यहाँ कमल, दो नीलोत्पल और दो बन्धूक-इन पाँच फूलों को लेते हैं। बन्धूक गुड़हल को कहते हैं, जिसमें मोठों का पूरा सादृश्य है किन्तु यह काम का बाप ही नहीं। स्फुट शब्द यहाँ उत्प्रेक्षा का वाचक है, किन्तु नारायण ने 'स्फुटम्' को 'प्रतिबिम्बितम्' का क्रियाविशेषण बनाकर 'मुखदृगोष्ठं शराः इस तरह व्यस्त रूपक माना है। विद्याधर ने अतिशयोक्ति कहा है। वह इसलिए कि छाती पर मुखदृगोष्ठ के प्रतिबिम्ब का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। विरहपाण्डकपोलतले विधुळधित भीमभुवः प्रतिबिम्बितः / अनुपलक्ष्यसितांशुतया मुखं निजसखं सुखमङ्कमृगार्पणात् / / 26 // अन्वयः-विधुः भीमभुवः विरहपाण्डुकपोलतले प्रतिबिम्बितः ( सन् ) अनुपलक्ष्यसितांशुतया सुखम् अङ्कमृगार्पपात् मुखम् निजसखम् व्यधित / टीका-विधुः चन्द्रः भीमभुवः भैम्याः विरहेण वियोगेन पाण्दु श्वेतम् ( त० तत्पु०) कपोलतलम् गण्डस्थलम् ( कर्मधा० ) कपोलयोः तलम् (प. तत्पु० ) तस्मिन् प्रतिबिम्बितः प्रतिफलितः सन् , न उपलक्ष्याः पृथक्त्वेन ज्ञातुमशक्या: ( नम् तत्पु० ) सिताः श्वेताः अंशवः किरपाः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) मावः तत्ता तया, कपोलतलं श्वेतमासीत् चन्द्रकिरणाश्चापि श्वेता आसन् इति तेषां पार्थक्येन ग्रहपामावादित्यर्थः सुखम् अनायासं यथा स्यात्तथा अङ्कः कलङ्करूपो यो मृगः हरिपः ( कर्मधा० ) तस्य अपंणात् आरोपणादित्यर्थः मुखं दमयन्त्याः वदनं निजः स्वकीयः सखा मित्रमिति निजसखः तम् व्यधित अकरोत् / विरहात् पूर्व दभयन्तीमुखं चन्द्रमतिशेते स्म, विरहे तु पाण्डुत्वे समुत्पन्ने समानपाण्डुवर्णचन्द्रप्रतिबिम्बस्य तत्र पार्थक्येनाग्रहपात् केवलमकमात्र ग्रहणाच्च तत् चन्द्रतुल्यीमूतमिति भावः / / 26 / / / ___ व्याकरण-प्रतिविम्बितः इसके लिये पिछला श्लोक देखिए / निजसखम् समास में सखिन् को टच समासान्त होने से वह राम शब्द की तरह अकारान्त बन जाता है ( 'राजाहः सखिभ्यपृच्' 54 / 91 ) / अनुवाद-विरह से पाण्डु वर्ण के बने दमयन्तो के कपोल-स्थल पर प्रतिबिम्बित हुअा चन्द्रमा ( अपनी ) पाण्डु वर्ष की किरणों के (पृथक् ) न दिखाई देने के कारण सहज ही में कल क-रूप मृग अर्पण करने से ( दमयन्ती के ) मुख को अपना सखा बना बैठा // 26 // टिप्पणी-दमयन्ती के कपोल पर प्रतिविम्बित चन्द्रमा दोनों के एक जैसे-पाण्डु-वर्ष होने के कारण दीखने में नहीं आता था; काला होने के कारण केवल मृग-जैसा धम्बा ही दिखाई देता
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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