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________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-दमयन्ती चिन्ता के अनुभव-प्रतिक्रिया के रूप में लंबी-लंबी आहे भर रही थी और उससे उसकी छाती और छाती पर की ओढ़नी-दोनों हिलती जा रही थीं। इस पर कवि की कल्पना यह है कि मानो आहे सखियों के आगे यह कह रही थीं कि इसका हृदय इस तरह कॉप रहा है (जैसे इसकी छाती ) छाती पर पड़ो चद्दर का भी हिलना स्वाभाविक ही या / उसका आधार ही जब हिल रहा है, तो वह भी क्यों न हिले ? पहले पादत्रय में उत्प्रेक्षा है, चतुर्थ पाद में समासोक्ति है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। करपदाननलोचननामभिः शतदलैः सुतनोविरहज्वरे / रविमहो बहुपीतचरं चिरादनिशतापमिषादुदसृज्यत // 17 // अन्वयः-सुतनोः विरहज्वरे कर'नाममिः शतदलैः बहु-पीतचरम् रवि-महः अनिशतापमिषात् चिरात् उदसूज्यत। टीका-सु सुष्टु तनः शरीरं यस्यास्तथा-भूतायाः (प्रादि ब० वी०) सुन्दर्याः दमयन्त्या इत्यर्थः विरहेण कृते ज्वरे विरहज्वरे ( मध्यमपदलोपो स० ) करौ हस्तौ च पदे पादौ च प्राननं मुखश्च लोचने नयने चैतेषां समाहारः इति लोचनम् ( समाहारद०) नामानि संशा येषां तथाभूतैः (ब० बी०) शतदलैः कमलैः ( 'कमलं शतपत्रं कुशेशयम्' इत्यमरः ) करपादाचात्मकैः कमलैरित्यर्थः बहु प्रचुरं यथा स्यात्तथा पीतचरम् पूर्व पीतम् रवेः सूर्यस्य महः तेजः अनिशं संततः यः तापः ज्वरः ( कर्मधा०) तस्य मिषात् कैतवात् चिरात् चिरकालम् सदसृज्यत उत्सृष्टम् / दिवा प्रचुरं सौरं तेजः पीत्वा दमयन्त्याः करपादादिरूपाणि कमलानि पश्चात् सततं चिर तत् उगिरन्ति स्मेति मावः // 17 // व्याकरण-शतदलैः शतं दलानि पत्राणि येषां तैः। पीतचरम् भूतपूर्व पीतम् इति पोत+ अनुवाद-विरह-जनित ज्वर में सुन्दर गात वाली ( दमयन्ती के हाथ, पैर, मुख और नयन नामक कमल ( दिन में ) पहले छककर पीये हुए सौर ताप को संतत ज्वर के बहाने देर तक उगलते रहते ये // 17 // टिप्पणी-संतत ज्वर के कारण दमयन्ती के समी अङ्ग ताप उगलते रहते थे। इस पर कवि कल्पना यह है कि उसके वे अङ्ग कमल थे जो दिन में सूर्य की ऊष्मा पीते थे, और रात को ज्वर के बहाने निरन्तर उसे बाहर निलालते रहते थे। यह उत्प्रेक्षा है, जो गम्य है। इसके मूल में मेदे अमेदातिशयोक्ति काम कर रही है, क्योंकि हाथ-पैर, मुख लोचन और होते हैं और कमल और, किन्तु कवि ने सादृश्य के कारण यहाँ इनमें अमेदाध्यवसाय कर रखा है। साथ ही 'मिष' शब्द द्वारा बाध्य यहाँ कैतवापह ति भी है ? इस तरह यहाँ इन सबका संकर है / विद्याधर यहाँ उत्प्रेक्षा न मानकर अतिशयोक्ति और अपहति के साथ समासोक्ति मानते हैं। उनका अभिप्राय यह होगा कि कर-पादादि कमल मथों की तरह पहले खूब पी जाते हैं और बाद को फिर उल्टो करते हैं / यह अंगों का समासोक्ति प्रयोजक चेतनीकरण हुआ। शब्दालंकारों में 'नन' 'नना', और 'चरं' 'चिरा' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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