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________________ 199 चतुर्थसर्गः अनुवाद-उस ( दमयन्ती) की दृष्टि-रूपी स्त्री-चित्रकार विरह से ( उत्पन्न ) सफेदो, राग ( अनुराग, प्रेम ) रूपी राग (लाली ), मूर्छारूपो स्याही की कालिमा तथा उस ( दमयन्ती ) का अपनाही ( स्वर्णित ) पीलापन-इन रंगों द्वारा दशों दिशाओं को नल के रूपों से चित्रित कर देती थी॥१५॥ टिप्पणी-चिन्ता संचारी माव की प्रतिक्रिया में दमयन्ती सतत नल का चिन्तन करती रहती थी। इस कारण भ्रान्ति अथवा मोह में वह चारों ओर आँखों के आगे नलको ही पाती थीं, जो स्वामाविक था, किन्तु इस पर कवि की कल्पना यह है कि मानो उसकी दृष्टि-रूपी स्त्रीचित्रकार सफेद लाल, काले और पीले रंगों से चारों दिशाओं में प्रियतम के चित्र खींचती जाती थी। इस तरह उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'खलु' शब्द है। उसके मूल में दृष्टि पर स्त्री-चित्रकारत्व राग (प्रेम) पर रागत्व ( लाली ) मूर्छा पर मशीत्व और गात की स्वर्णिम कान्ति पर पीतत्व का आरोप होने से रूपक काम कर रहे हैं। 'राग' में रूपक श्लिष्ट है। इसलिए उत्प्रेक्षा और रूपकका अङ्गाङ्गिभाव संकर है किन्तु यहाँ 'दिशा' पर मित्तिकात्व का आरोप नहीं हो पाया है, क्योंकि विना मित्ति अथवा फलक के चित्र कैसे बन सकता है ? अतः रूपक एकदेशविवर्ती ही रह गया, समस्त वस्तुविषयक नहीं बन सका। विद्याधर ने यहाँ रूपक के साथ विशेष अलंकार माना है। विशेष वहाँ होता है जहाँ आधेय को विना आधार के बताया जाय, यहाँ बिना भित्ति अथवा फलक के चित्र बताए गए हैं / शब्दालंकारों में 'दश' 'दिशः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्मरकृतां हृदयस्य मुहुर्दशा बहु वदन्निव निःश्वसितानिलः / व्यधित वाससि कम्पमदः श्रिते सति कः सति नाश्रयबाधने // 16 // अन्धयः-निःश्वसितानिलः ( दमयन्त्याः ) हृदयस्य स्मर-कृताम् दशाम् मुहुः बहु वदन् इत्र अदः श्रिते वाससि कम्पम् व्यधित; आश्रय-बाधने सति कः न वसति ? टीका-निःश्वसितम् निःश्वासः अनिलः बायुः निःश्वासरूपी वायुरित्यर्थः ( कर्मधा०) दमयन्त्याः हृदयस्य हृदः स्मरेण कामेन कृताम् जनिताम् (तृ० तत्पु०) दशाम् अवस्था पीडामिति यावत् मुहुः वारंवारं बहु भृशं यथा स्यात्तथा वदन् कथयन् इव अदः इदम् हृदयमिति यावत् श्रिते आश्रिते ( दि० तत्पु० ) वाससि वस्त्रे कम्पम् चलनम् ब्यधित अकरोत् / बिरहकृतदीर्घ-दीर्घनिःश्वास-कारणात् दमयन्त्या वक्षः कम्पते स्म, वक्षः-कम्पाच्च तत्र स्थितं वस्त्रमपि कम्पते स्मेति भावः। आश्रयस्य आधारस्य बाधने पीडायाम् ( 10 तत्पु० ) सति सत्याम् कः न वसति विमेति सर्वोऽपि त्रसतीति काकुः / / 16 // व्याकरण-निःश्वसितम् निस्+Vवस्+क्तः / भावे ) / व्यधित वि+/धा +लुङ् / अनुवाद-दमयन्तो को ) आहे ( उसके ) हृदय की काम द्वारा को हुई हालत को बार-बार खूब कहती हुई-जैसी (कि वह वक्षकी तरह कॉप रहा है ) उस ( वक्ष) पर पड़ी चादर को हिला देती थीं, माश्रयको कष्ट पहुँचने पर (भला ) कौन नही डरता? / / 16 / /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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