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________________ तृतीयसर्गः उस (दमयन्ती ) की दृष्टि से दूर हो गया, लेकिन ( दृष्टि से ) दूर होता हुआ भी मन से दूर नहीं हुआ // 131 // टिप्पणी-'समीप होता हुआ मी दूर और दूर होता हुआ भी समीप' में विरोधाभास है, जिसका समाधान अश्रुजल द्वारा व्यवधान और स्मृति में हो जाता है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। साहित्यिक दृष्टि से कवि को ‘विप्रचकृषे' से किये हुए निर्देश का प्रतिनिर्देश 'विपचकृष' शब्द से ही करना चाहिए था न कि 'व्यवदधे शब्द से। अतः यह दोष-कोटि में भा रहा है। छन्द यहाँ 'वसन्ततिलका' है जिसके लक्षण के लिए पीछे का श्लोक 125 देखिए। अस्तित्वं कार्यसिद्धः स्फुटमथ कथयन् पक्षतेः कम्पभेदै राख्यातुं वृत्तमेतनिषधनरपतौ सर्वमेकः प्रतस्थे / कान्तारे निर्गतासि प्रियसखि ! पदवी विस्मृता किन्नु मुग्धे ! मा रंदीरेहि यामेत्युपहृतवचसो निन्युरन्यां वयस्याः // 132 // अन्वयः-अथ पकः पक्षतेः कम्प-मेदैः कार्य-सिद्धः अस्तित्वं स्फुटं कथयन् वृत्तम् एतत् सर्वम् निषधनरपती आख्यातुम् प्रतस्थे; अन्याम् ‘प्रियताख, ( त्वम् ) कान्तारे निर्गता असि, ( अयि) मुग्धे ! पदवी विस्मृता किं नु ? मा रोदीः, एहि, याम' इति उपहृत-वचसः वयस्याः निन्युः। टीका-अथ एतदनन्तरम् एको हंसदमयन्त्योमध्ये अन्यतरो हंस इत्यर्थः पक्षतेः पक्षयोः कम्पस्य कम्पनस्य मेदैः विशेषः ( उभयत्र तत्पु० ) पक्षयोः विशेष प्रकारस्य कम्पनैः, यथा कश्चित् स्वीकृतिरूपे हस्तयोः चालन-विशेष कराति तद्वदित्यर्थः कार्यस्य दमयन्तीप्राप्तिरूपस्य सिद्धेः सफलतायाः (10 तत्पु० ) अस्तित्वं सद्भावम् स्फुटमिति संभावनायां कथयन् वदन वृत्तम् निष्पन्नम् एतत् सर्वम् घटनाचक्रमिति शेषः निषधानां एतदाख्यदेशविशेषस्य नराणां लोकान पत्यो स्वामिनि ( उभयत्र प० तत्पु० ) आख्यातुं कथयितुं प्रतस्थे प्रस्थानमकरोत्, अन्यां द्वितीयां दमयन्तीमित्यर्थः 'प्रिया चासौ सखी बाली तत्सम्बुद्धौ स्वम् कान्तारे दुर्गमे वर्त्मनि ( 'कान्तारं वम दुर्गमम् इत्यमरः ) निर्गता प्रस्थिता असि, अयि मुग्धे सरलचित्ते ! पदवी मार्गः ( 'अयनं वम मार्गाव-पन्थान: पदवी सृतिः' इत्यमरः) विस्मृता बिस्मृति नीता कि नु इति विकल्पे ( 'नु पृच्छायां विकल्पे च' इत्यमरः ) त्वयेति शेषः मा रोदीः रोदनं न कुरु, एहि आगच्छ; याम गच्छाम' इति एवं प्रकारेण उपहृतं दत्तं वचः वचन याभिस्तथाभताः ( ब० व्रो० ) वयस्याः सख्यो निन्युः गृहं प्रापयामासुः // 132 // म्याकरण--अस्तित्वम् 'अस्ति' सद्भाव अर्थ में अध्यय है ( 'अस्ति सत्त्वे' इत्यमरः ) उससे माव-अर्थ में स्व प्रत्यय है। वृत्तम् /वृत्+क्तः ( कर्तरि ) / याम /या+लोट् उत्त० 20 / वयस्याः वयता तुल्या इति वयस्+यत् +टाप् ( 'नौ-वयो०' 4 / 4,91 ) / अनुवाद-तत्पश्चात् ( उन दोनों में से ) एक ( हंस ) पंखों के विशेष प्रकार के संचालनों द्वारा कार्य सफलता को सत्ता को कहता हुआ-जैसा, जो कुछ हुआ, वह सब निषध-नरेश ( नल ) को कहने हेतु चल दिया; दूसरी ( दमयन्ती ) की सहेलियो–'प्रिय सखो, तुम दुर्गम मार्ग में निकल पड़ी हो; अथवा अरी मोली-भाली, तुम राह भूल गयी हो क्या ? रोओ मत, आओ चलें' यह कहती हुई (घर) ले गई // 132 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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