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________________ नैषधीयचरिते अत्यन्त मीठे और सुगन्धित, प्रियतम के दून श्रेष्ठ पक्षी (हंम ) की वाणो रूपोन को प्रेम के साम चख-चख कर भी तृप्ति को प्राप्त नहीं हुई, ताप को प्राप्त हुई और लंबी मूर्छा भी खा बैठो // 130 // टिप्पणी-प्राप्तापि तृप्तिम् न-ममो टोका कार 'तृप्ति प्राप्तापि न तापं प्राप, न मूर्छामपि आनर्छ' इस तरह अन्बय करके यह अर्थ कर गये हैं कि मधु-मिश्रित घृत खाकर मी उसे न ताप हो हुआ, न ही मूर्छा आई-यह आश्चर्य की बात है। वास्तव में 'मधुनो विषरूपत्वं तुल्यांशे मधुसपिषो' ( वाग्मट ) इस आयुर्वेद-सिद्धान्त के अनुसार मधु मिश्रित घृत का विष न बन जाने में कोई कारण नहीं। इसलिए नारायण ने आयुर्वेद के उक्त सिद्धान्त के आधार पर वैकल्पिक रूप में जो दूसरा अर्थ किया है, हमने उसी का अनुसरण किया है / मधुमिश्रित पो खाकर दमयन्ती को ताप भी हुआ और मूळ मी आई। विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति, समामोक्ति और विषम का संकर माना है। अतिशयोक्ति मधु-मधु में मेद होते हुए भो दोनों के अमेदाध्यवसाय में है। समासोक्ति जड़ के चेतनीकरण-रूप में तो नहीं है, किन्तु प्रेम की सारी घटना पर वैद्यकशास्त्र के व्यवहार-समारोप में है। विषम अपने उस मेद में है जहाँ अभीष्ट प्राप्ति को चाह में अनिष्ट-प्राप्ति हो उठती है / दमयन्ती मन-शान्ति हेतु हंस से प्रिय. तम की कहानी सुन रही थी, सुनकर उसे उल्टा ताप और मूर्जा आ गई / 'गये थे चौबे छब्बे बनने, दुम्बे होकर आए'-वाली बात समझिए / हमारे विचार से इन अलंकारों को संकर में पतङ्गपुङ्गवगवी पर हैयङ्गवीनत्व के आरोप से रूपक भी जुड़ जाना चाहिए था। शब्दालंकारों में 'गवी' 'गवी' में यमक, 'मित्र' 'मा' 'स्वादं 'स्वाद' में छक और अन्यत्र वृत्यनुपास है। छन्द शार्दूल विक्रीडित है / लक्षण के लिए पीछे श्लोक 126 देखें। तस्या दृशो नृपति बन्धुमनुव्रजन्त्यास्तं वाष्पवारि न चिरादवधिर्बभूव / पाश्र्वेऽपि विप्रचकृषे तदनेन दृष्टेरारादपि व्यवदधे न तु चित्तवृत्तेः // 13 // अन्वयः–तम् नृपति-बन्धुम् अनुव्रजन्त्याः तस्याः दृशः बाष्प-वारि नचिरात् अवधोबभूवः तत् अनेन पावै अपि दृष्टेः विपचकृष, तु चित्त वृत्तेः आरात् अपि न व्यवदधे / ___टीका-तम् नृपतेः राशा नलस्य बन्धुम् सखायं हसमित्यर्थः अनुव्रजन्त्या अनुगच्छन्त्याः तस्या दमयन्त्या दृशः दृष्टे: वाष्प-रूपं वारि जलम् अश्रुजलमित्यर्थः ( कर्मधा० ) न चिरात् शाघ्रमेव अवधीबभूव सीमाऽभूत् , 'औदकान्तात् प्रियं पान्थमनुव्रजेत' इति शास्त्रवचनात् वारि-पर्यन्तं पथिकस्यानुगमनं कर्तव्यं भवति, हंसस्य गमनेनोत्पन्नमश्रुजलं तं द्रष्टु न ददाविति भावः; तत् तस्मात् अनेन हंसेन पारवें समीपे आप इष्टः दृशः सकाशात् विपचकृषे विप्रकृष्टीभूतम् व्यवहितमिति यावत् , तु किन्तु व्यवदधे विप्रवकृषे नयनपथात् दूरीमतोऽपि सन् हंसो दमयन्त्या मानसपथान्न दूरोभत इति भावः॥१३१॥ व्याकरण-अवधीबभूव अनवधिः अवधिः सम्पद्यमानम् बभूवेति अवधि+चि ईव++ लिट् / विप्रचकृषे वि++/कृष+लिट् ( भाववाच्य)। व्यवदधे वि+अब+Vा+लिट् / अनुवाद-राजा ( नल ) के उस मित्र ( हंस ) के पीछे पीछे जाती हुई उस ( दमयन्तो ) को दृष्टि का अश्रु-जल (अनुगमन की ) अवधि बन बैठा, अतएव समोप में होता हुबा भी वह ( हंस )
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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