________________ 172 नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ पंखों के विशेष प्रकार के संचालनों पर कहने की कल्पना की जाने से उत्प्रेक्षा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। छन्द स्रग्धरा है, जिसका लक्षण यह है-'नम्नैर्यानां त्रण त्रिमुनितियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम्' अर्थात् म, र, म, न, य, य, य, और सात-सात में यति / सरसि नृपमपश्यद्यत्र तत्तीरभाजः स्मरतरलमशोकानोकहस्योपमूलम् / किसलयदलतल्पम्नायिनं प्राप तं स ज्वलदसमशरेषुस्पर्धिपुष्पर्धिमौलेः // 133 // अन्वयः- स यत्र सरसि नृपम् अपश्यत् तत्तोर-माज: ज्वल.."मौलेः, अशोकानोकहस्य उपमूलम् स्मर-तरलम् किमलय-दल-तल्प-ग्लापिनम् तम् प्राप। टीका–स हंसः यत्र यस्मिन् सरसि तटाके नृपम् राजानं नलम् अपश्यत् दृष्टवान् आसीत् तस्य सरसः तीरं तट (10 तत्पु० ) मजति अधितिष्ठतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) ज्वलन्ती दोप्यमाना ये असम-शरेषवः ( कर्मधा०) असमा विषमाः पन्चेत्यर्थः शरा बाणा यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) तस्य कामस्येत्यर्थः इषवः बापाः ( 10 तत्पु० ) तैः सह स्पर्धन्ते स्पर्धा कुर्वन्तीति तथोक्तानि ( उपपद तत्पु०) यानि पुष्पाणि कुसुमानि ( कर्मधा० ) तेषाम् ऋद्धिः समृद्धिः प्राचुर्यमित्यर्थः ( 10 तत्पु० ) यस्मिन् तथाभूतः (ब० वी०) मौलिः शिरः अग्रभाग इति यावत् यस्य तथाभूतस्य (ब० व्रो० ) अशोकस्य अनोकहस्य वृक्षस्य ( 10 तत्पु० ) अथवा अशोकाभिन्नोऽनोकह इति आम्रवृक्षवत् समासः (कर्मधा० ) तस्य मूले अथवा मूलस्य समीपे इत्युपमूलम् ( अव्ययीभाव स० ) स्मरेण कामेन तरलं चन्चलम् ( तृ० तत्पु० ) किसलयानां पल्लवानां यानि दलानि कोमलाङ्कुराः तेषां पल्यं शयनम् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) कामज्वरेण म्लापयति ग्लानि नयति तथोक्तम् (उपपद तत्पु०) तम् नृपम् नलम् 'प्राप प्राप्तवान् // 133 // व्याकरण-माजः कर्तरि विप् ऋद्धिः ऋ+क्तिन् म्लापिनम्, पधि-ताच्छोल्ये पिन् / (भावे ) माप प्र+ आप+लिट् / अनुवाद-उस ( हस ) ने जिस सरोवर पर राजा ( नल ) को देखा था, उसी के तौर पर स्थित, कामदेव के जलते हुए बाणों के साथ स्पर्धा करने वाला, पुष्यों का प्राचुर्य अग्रभाग में रखे अशोक वृक्षकी जड़ के पास काम ( -पोड़ा ) से छटपटाते हुए और किसलयों की पंखुड़ियों की शय्या को ( काम-ताप से ) मुझा देने वाले उस (नल ) को देखा // 133 / / टिप्पणी-यहाँ अशोक के पुष्पों की काम के बाणों के साथ समता बताने में उपमा है / कामदेव के जलते हुए बाण लाल होत हैं, तो अशोक के फूल भी लाल होते हैं। यही दोनों में साधर्म्य है / शरेषु (शर+हषु ) में आपाततः पुनरुक्ति दोखने से पुनरुक्तबदाभास है, किन्तु अन्वय-भेद होने से कोई पनरुक्ति नहीं। 'स्पर्षि पद्धि' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / श्लोक में छन्द मालिनी है, जिसका लक्षण है-ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः / अर्थात् न, न, म, य, य (8, 7 में यति ) / परवति ! दमयन्ति ! त्वां न किञ्चिद्वदामि द्रुतमुग्नम कि मामाह सा शंस हंस ! / इति वदति नलेऽसौ तच्छशंसोपनम्रः प्रियमनु सुकृतां हि स्वस्पृहाया:विलम्बः।।१३४॥ अन्वयः-हे परवति दमयन्ति, ( अहम् ) वाम् किश्चित् न वदामि / हे हंस, ( त्वम् ) द्रुतम्