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________________ तृतीयसर्गः 10 इतच् / कोरकितः कोरक+इतच / म्रदिमा मृदु+इमनिच , ऋकार को रकार / पुल्पितः, फखितः Vपुष्प, Vफल+क्त ( कर्तरि ) / अनुवाद-नल का तप-रूपी कल्प-वृक्ष आश्चर्यजनक है-वह कल्पवृक्ष, जिसके अड्कुर की शोमा तुम्हारे हाथों के नाखूनों के अग्रभागों के रूप में चमक रही है, जिसको दो-पत्तियाँ तुम्हारी आँखों की दो भौंह-रूप हैं; जिसका ( डंडो वाला ) बीच का अङ्कुर तुम्हारा अधरोष्ठ है, जो तुम्हारे हाथों के रूप में नये पल्लव वाला बना हुआ है, जिसमें तुम्हारी अङ्गों की मृदुता के रूप में पुष्प लगे हुए हैं, और जो तुम्हारे स्तनों की शोभा के रूप में फलयुक्त हुआ है // 120-121 // टिप्पणो-यहाँ दमयन्ती प्राप्ति हेतु नल ने जो तप किया, उसे कल्पवृक्ष का रूप दे दिया गया है, जिसके अंकुर से लेकर फल तक का 'रूपण' दमयन्ती के तत्तत् अंगों के रूप में कवि ने चित्रित कर रखा है, अतः सभी 'रूपयों' का अङ्गाङ्गिभाव होने से साङ्गरूपक है। तप नल ने किया है, तपरूप कल्पतरु उसी के पास है, किन्तु उसके अंकुर आदि कार्य दूसरी जगह अर्थात् दमयन्ती में दिखाये गए हैं, इसलिए कार्य कारणों के भिन्न-भिन्न स्थानों में होने से असंगति अलंकार भी है, जिसका साङ्गरूपक के साथ सांकर्य है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है / एक ही वाक्य के दो श्लोक तक जाने के कारण यह युग्मक है। कांसीकृतासीत् खलु मण्डलीन्दोः संसक्तरश्मिप्रकरा स्मरेण / तुला च नाराचलता निजैव मिथोऽनुरागस्य समीकृतौ वाम् // 122 // अन्वयः-(हे भैमि, ) वाम् मियः अनुरागस्य समोकृतो स्मरेण संसक्त-रश्मिप्रकरा इन्दोः मण्डली कांसीकृता, निजा एव च नाराच-लता तुला ( कृता ) आसीत् / टीका-(हे भैमि,) वाम् नलस्य तव च युवयोरित्यर्थः भियः परस्परम् अनुरागस्य प्रोतेः समी. कृतौ समीकरणे यावान् अनुरागा नलस्य स्वयि, तावानेवानुरागस्तत्र तस्मिन्निति द्वयोर्युवयोरनुराग परस्परं संतुलितं कतुमित्यर्थः स्मरेण कामेन संसक्तः सम्बद्धः ( कर्मधा० ) रश्मोना किरणानां प्रकरः समूह एव रश्मीनां रज्जूनां प्रकरः समूहः (10 तत्पु० ) यस्यां तयाभूता ( ब० वा०) इन्दोः चन्द्रस्य मण्डली बिम्बम् कांसोकृता कांस्यपात्रोकृता परिमेयवस्तुधारणयार्थ कंस-धातुनिर्मित-गोलाकारपात्रत्वं. नोवेति यावत् निजा स्त्रीया नारा वो बाप्पः लता वल्लीन ( उअमित तरसु० ) तुठा तोउनदण्डश्च कृता आसीत् , ख वति कल्पनायाम् // 122 // व्याकरण-वाम् नलस्य तत्र चेति युवयोः ('त्यदादीनां मिथः सहोक्तो यत् परं तच्छिष्यते') युवयोः को विकल्प से वाम् आदेश / समीकृतौ असमं समं करोतीति सम+चि, इत्वम् +/+ क्तिन् ( मावे ) सप्त। कांसाकृता अकास्यं कांस्यं सम्पन्नं कृतमिति / कंसाय हितम् इति कंत+ चकंसोयम् तस्य विकारः इति कसोय+यञ् , छस्य लोपे कास्त्रम् , कांस्यं+बिनम् , य कारलोपः। अनुवाद-(हे भेमी ! ) ऐसा प्रतीत होता है कि मानो तुप दोनों के पारस्परिक प्रेम को सन्तुलित करने में कामदेव ने चन्द्र-मण्डल को रश्मि ( किरण ) समूह रूपमा रश्मि ( डोरी) समूह से बँधा काँसी का पलड़ा तथा अपने ही लता जैसे (लंबे) बाणको ( राजू का) डडो बनाई हो // 122 / /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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