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________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ चन्द्रमण्डल पर कॉसी के पलड़े, रश्मियों पर डोरियों तथा नाराच पर तुलादण्डत्व का आरोप होने से रूपकालंकार है जो रश्मि शब्द में श्लिष्ट है / स्मर पर वषिक्त्वारोप म होने से रूपक एकदेश विवर्ती ही है। उसका खलु-शब्दवाच्य उत्प्रेक्षा के साथ सांकर्य है। किन्तु कवि को इस कल्पना में हमें एक त्रुटि दिखाई दे रही है और वह यह कि उसने यहाँ चन्द्रमा के रूप में एक ही कोसी का पलड़ा बनाया है जबकि तराजू के हमेशा दो पलड़े हुआ करते हैं / दूसरे पलड़े के सम्बन्ध में कवि चुप है। चाहता तो वह सूर्यमण्डल को दूसरा पलड़ा बना सकता था। नाराचछता में छुप्तोपमा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। सत्त्वस्नुतस्वेदमधूत्थसान्द्रे तत्पाणिपर्दो मदनोत्सवेषु / लग्नोस्थितास्त्वत्कुचपत्ररेखास्तन्निर्गतास्तं प्रविशन्तु भूयः / / 123 // अन्वयः-(हे भैमि ) मदनोत्सवेषु सत्त्व नुत-स्वेद-मधूत्थ-सान्द्रे तत-पाणि पझे लग्नोस्थिताः स्वत्कुच-पत्र लेखाः तन्निर्गताः भूयः तम् प्रविशन्तु / टीका-(हे भैमी ) मदनग्य कामस्य उत्सवेषु आनन्देषु रति-केलिश्वित्यर्थः (10 तत्पु० ) सत्त्वं सात्त्विको मावः तेन सूतः द्रुत उत्पन्न इति यावत ( तृ० तत्पु० ) यः स्वेदः धर्मजलम् एव मधूत्थं सिक्थं मधूच्छिष्टमिति यावत् ('मधूच्छिष्टं तु सिक्थकम्' इत्यमरः ) ( उभयत्र कर्मधा० ) तेन सान्द्रे निबिडे तस्य नलस्य पाणिः हस्तः (10 तत्पु० ) पद्मं कमलमिव तस्मिन् ( उपमित तत्पु० ) लग्नाः पूर्वसंक्रान्ताः हस्ते स्थानान्तरिता इति यावत् पश्चात् उत्थिताः स्तनप्रदेशाद् विश्लिष्टा इत्यर्थः (कर्मधा० ) तव कुचयोः स्तन्योः ( 10 तत्पु० ) पत्राणां ( स० तत्पु० ) लेखाः चित्राणि (ष०तत्पु०) तस्मात नलस्य-पायिपद्माव निर्गतः समुत्पन्नाः नलहस्तर चिता इत्यर्थः (10 तत्पु० ) भूयः पुनः तम् नलपापिपमम् प्रविशन्तु लयं गच्छन्तु, कार्यस्य कारणलयांनयमात् / नलहस्तेन भैम्याः स्तनयोः पूर्व यानि पत्राणि चित्रितानि स्युः, तानि पश्चात् रतिकाले तत्र स्थापिते साविकमावरूपेण स्विन्ने नक हस्ते मधूत्थे इव संक्रम्य स्तनाभ्यां लुप्तानि भवन्त्विति भावः / / 123 / / म्याकरण-मधूरथम् मधुन उत्तिष्ठतौति मधु+/स्था+कः। सान्द्र अन्द्रेण सह वर्तमान शति सह+अन्द्र। भनुवाद-(हे भेमो) रति-केलियों में सात्विक भाव के कारण बहने वाले पसीने-रूपी मोम से खूब मरे हुये उस ( नल ) के कमल जैसे हाथ पर लगे और ( कुचों से ) मिटे तुम्हारे कुचों पर को पत्तों की चित्रकारी उस ( नल के हाथ ) से बनी हुई फिर उसी ( नल के हाथ ) में विलीन हो बाय / / 123 // टिप्पणी-यहाँ सात्विक माव स्वेद पर मोम का आरोप होने से रूपक है। मोम की विशेषता वह है कि वह लिखे हुए चित्र लिपि आदि को अपने भीतर खींच लेता है। पसीने का भी यही हाल है। स्याही-चूस की तरह वह लिखावट को अपने मीतर ले लेता है / इसी साम्य से कवि ने स्वेद पर मोम का आरोप किया है / इस रूपक के साथ आशीरलंकार का सांकर्य है / 'पाणि-पद्म' में लुप्तोपमा
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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