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________________ नैषधीयचरिते हायो डूबने की समी बातों का रूप होने से यह समस्तवस्तुविषयक रूपक है। शब्दालंकारों में 'महा' 'मही' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। सव्यापसव्यत्यजनाद् द्विरुक्तः पन्चेषुवाणैः पृथमर्जितासु / दशासु शेषा खलु तद्दशा या तया नमः पुष्प्यतु कोरकेण // 114 // अन्वया-सव्यापसव्य-त्यजनात् द्विरुक्तः पञ्चेषु-बाणैः पृथक् भजितासु दशातु शेषा, तया कोरकेष नमः खलु पुष्प्यतु // 114 // टीका-सव्यो वामश्च अपसव्यो दक्षिणश्चेति सव्यापसव्यौ करौ इति शेषः ( कर्मधा० ) ताभ्यां स्यजनात् मोचनात् ( तृ० तत्पु० ) द्विः द्विवारमुक्तः कथितेः लक्षपया द्विगुणितैः पञ्चेषोः कामस्य वापः शरैः (10 तत्पु० ) पृथक् प्रत्येकम् अजितासु जनितासु दशासु अवस्थासु शेषा अवशिष्टा या दशा मृतिरूपा तया अमंगलवाचकत्वात् तस्या नाम न गृहीवा तच्छब्देन प्रतिपादनम् कोरकेण तद्रपया कलिकयेत्यर्थः नम आकाशं पुष्प्यतु पुष्पितं भवतु साऽन्तिमा दशा खपुष्पायताम् , मा भवधित्यर्थः / / 114 // व्याकरण-द्विः द्वि+सुच् ( क्रियाभ्यावृत्तिगणने ) / द्विरुक्तः यद्यपि यह शब्द दो बार कहे हुए अर्थ का प्रतिपादक है, किन्तु लक्षणा द्वारा यह अव दो बार को हुई क्रियामात्र का बोधक हो गया है। शेष शिष्यते इति /शिष् + अच्। यह शब्द विशेष्य और विशेषण दोनों बनता है। विशेषण-रूप में यह विशेष्यलिङ्गनिम्न होता है। पुष्प्यतु पुष्प +(विकसने ) लोट् / अनुवाद-बायें और दायें-दोनों हाथों द्वारा छोड़ने से पचवाय ( काम ) के दुगुने अर्थात दस बाप्यों की पृथक्-पृथक् उत्पन्न की हुई दशाओं में से शेष बची उसको ( दसवीं) दशा ( मृति ) रूपी कली आकाश में खिल जाय (='खपुष्प' हो जाय ) / / 114 / टिप्पणी-यहाँ दशवी दशा पर कोरकत्वारोप होने से रूपक है। विद्याधर ने अर्थान्तर और ययासंख्य माने हैं / क्रमशः गिनाई हुई नयन-प्रीति आदि दशाओं का उक्त श्लोकों में क्रमशः अन्वय होने से यथासंख्य तो बन भो सकता है लेकिन उनका अर्थान्तरन्यास हमारी समझ में नहीं आ रहा है / 'पनेषु' शब्द के यहाँ सामिप्राय विशेष्य होने से परिकरार है। 'सव्या' 'सव्य' 'शासु' 'शेषः' (शषयोरमेदात् ) 'दशा' 'दशा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ध्यान रहे कि दशवीं कामदशा, जिसे मृत्यु कहते हैं, वह वस्तुतः मृत्यु रूप से यहां अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि मृत्यु शृङ्गार को समाप्त करके करुण को उत्पन्न कर देती है। मृत्यु से अभिप्राय कामदशा में मरणासन्नता से होता है, जिसे कवि चाहता तो बता सकता था, किन्तु उसे उसने खपुष्प बना दिया है, मरणासन्नता तक पहुँचने से पूर्व ही वह नल को दमयन्ती से मिला देगा। स्वयि स्मराधेः सततास्मितेन प्रस्थापितो भूमिभृतास्मि तेन / आगत्य भूतः सफलो भवस्या भावप्रतीस्या गुणनोमवस्याः // 115 // अन्धवः-स्मराधेः सत्तास्मितेन तेन भूमिभृता स्वयि अहं प्रस्थापितः अस्मि ( अहम् ) आगत्व गुष-छोमवत्या मवत्याः माव-प्रतीत्या सफलः भूतः ( अस्मि)।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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