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________________ तृतीयसर्गः टीका-स नलः (हे भैमि !) त्वं रुष्टा कुपिता असि किलेति सम्भावनायाम् अकस्मात सहसा स्वरकोपं विनैवेत्यर्थः बिमेति भयं प्राप्नोति, त्वाम् आप प्राप्तवानस्ति किलेति सम्भावनायाम् अकाण्डे अनवसरे हसति हसितं करोति, यान्तीं गच्छन्तीम् इव त्वाम् अनु अहेतोः निष्कारणं याति गच्छति, त्वया उक्तः कथित इव मोघं पृथैव प्रतिवक्ति प्रतिवचनं ददाति // 112 / / म्याकरण-अकस्मात् न कस्मात् इति ( नञ् तत्पु० ) ( अव्य० ) / आप आप + लिट् / अनुवाद-वह ( नल ) (हे भेमो, ) तुम कुपित हो गई हो, यह कल्पना करके अकस्मात् डर जाता है। 'तुम्हें प्राप्त कर लिया है' यह कल्पना करके असमय हँस देता है / 'तुम जा रही हो जैसे यह समझकर निष्कारण तुम्हारे पीछे-पीछे चल देता है। तुमने ( कुछ ) कहा हो-जैसे यह सोचकर यों ही उत्तर देता है // 112 // टिप्पणी-यहाँ संभावना को जाने पर उत्प्रेक्षालंकार है / एक ही कर्ता का अनेक क्रियाओं के. साथ सम्बन्ध होने से कारक-दीपक मी है। शब्दालंकारों में 'किले 'किला' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / यहाँ कवि ने आठवी कामदशा अर्थात् नल को उन्मादावस्या का चित्र किया है। भवद्वियोगाच्छिदुरार्तिधारायमस्वसुमज्जति निश्शरण्यः। मूर्छामयद्वीपमहान्ध्यपङ्के हाहा महीभृद्भटकुञ्जरोऽयम् // 113 // अन्वयः-मवद्वि.. स्वसुः मूर्छा...पके अयम् महीभृद्भटकुञ्जरः निःशरण्यः सन् मज्जति हाहा।। टीका-मवत्या तव वियोगो विरहः (प० तत्पु०) वेन ( जनिता ) अच्छिदुरा अविच्छिन्ना निरन्तरेति यावत् या अतिधारा ( कर्मधा० ) अतें: पोडाया धारा परम्परा ( 10 तत्पु० ) सा एक यमस्वसा यमुना तस्याः ( कर्मधा० ) मूर्छा एवेति मूर्छामयः दीपः जलमध्यस्थ-स्थलखण्डः (कर्मधा०) तस्मिन् महान्ध्यम् महाऽशानम् ( स. तत्प० ) महांश्चासौ अन्धः ( कर्मधा० ) तस्य मावः तद्रपे पङ्के कर्दमे ( कर्मधा० ) तस्मिन् अयम् एष महीं पृथिवीं विमर्तीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) राजेत्यर्थश्वासौ मटो वीर एव कुञ्जरो इस्ती निःशरण्यः निर्गतः शरण्यो रक्षको यस्मात् तथाभूतः ( प्रादि ब० ब्री० ) सन् मज्जति ब्रूडतीति हाहा! महाखेदोऽस्ति। वद्विरहपीडया राजवीरो नलो मूर्छामवाप्नोवीति भावः // 113 // व्याकरण--भवद्वियोग०-सर्वनामों के अन्तर्गत होने से 'मवती' को वृत्तिमात्र में पुवद्भाव / अच्छिदुरा न च्छिदुरेति /च्छिद्+कुरच ( कर्तरि ) / शरण्यः शरणे साधुः इति शरण+यत् ( रक्षक ) / द्वीपः द्विर्गता आपो यत्रेति द्वि+अप् , अप् को ईप / अनुवाद-आपके विरह से उत्पन्न अविच्छिन्न वेदनाधारा रूपी यमुना नदी के मू रूपी महामोह के कीचड़ में यह राज-वीर ( नल) रूपी हाथी निस्सहाय हो डूब रहा है-यह बड़े दुःख की बात है // 113 // टिप्पणी-यहाँ बिना हाबीवान के नदी के कीचड़ में डूबे जा रहे हाथी के अप्रस्तुत विधान से कवि नल की नवमी कामदशा अर्थात् मूर्छा का वर्षन कर रहा है। अतिधारा और यमुना का साम्य मल्लि० ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-'अतिधारायास्तमोविकारत्वेन रूपसाम्याद् यमुनारूपणम्।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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