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________________ 154 नैषधीयचरिते अन्वयः-अपत्रपिष्योः तस्य विशाला लज्जा सांक्रामिकी रुवा इव धोरम् स्मारम् ज्वरम् चिकिरसौ सिद्धागदंकार-चये निदान-मौनात् अविशत् / टीका-अपत्रपिष्प्योः लज्जाशीलस्य ( 'लज्जाशीऽपत्रपिष्णुः' इत्यमरः ) तस्य नकस्य विशाला महती उज्जा पा सांकामिकी सांसगिकी रुजा रुक् इव पोरं दारुणं स्मारम् कामजनितं ज्वरं तापं चिकिरसौ प्रतिकुर्वाणे चिकित्सा कुर्वाणे इत्यर्थः सिद्धा निपुणाः चिकित्सा करणे समर्था इति यावत् ये अगदंकाराः चिकित्सका वैद्या इत्यर्थः (कर्मवा० ) तेषां चये समूहे (प० तत्पु० ) निदाने रोगस्यादिकारणे (निदानं स्वादिकारणमित्यमरः ) मूलकारणप्रतिपादने इति यावत् / मातात् तूष्णीमावात ( स० तत्पु० ) अविशत् / निपुषा अपि चिकित्सका नलज्वरकारणमविदित्वा तूष्णींमूताः सन्तो उज्जामवापुरिति मावः // 111 / / ग्याकरण-अपत्रपिष्णुः अपत्रपते इति अप+/ +इष्णुच् ( कर्तरि ) सांक्रामिकोसक्रमादागतेति संक्रम+ठक, उमयपद-वृद्धि+डीप् / रुचारुच+विप् +टाप् / स्मारम् स्मरस्येमम् इति स्मर +अण / चिकित्सौ-/कित्+सन् +उ सप्त०, 'न लोका०' 2 3 / 69 से षष्ठी-निषेष / अगदंकारः न गदो रोगो यस्य (नञ् व० व्रो० ) तयाभूतं करोतीति अगद+/+ अप, मुम् का आगम। / अनुवाद-सांक्रामिक व्याधि की तरह लज्जाशील उस ( नल ) की विशाल लज्जा उस निपष बैद्य समूह में संक्रमित हो गई जो ( नल के ) बड़े मारी काम-ज्वर की चिकित्सा कर रहे थे, किन्तु रोग के निदान पर चुप हुए बैठे थे // 111 // टिप्पणी-कवि ने लज्जा को तुलना सांकामिक बीमारी से की है अतः उपमा है / सांक्रामिक रोगों को इस तरह गिना रखा है-'अक्षिरोगों छपस्मारः क्षयः कुष्ठो मसूरिका। दर्शनात् स्पर्शनाद् दानात् संक्रामन्ति नरान्नरम्' / / हमारे विचार से यह सम्मावना ही है कि मानो नल की उज्जा वैद्यों में स्थान्तरित हो गई हो। लज्जा के कारण हो लोग चुप हुए रहते हैं। इसलिए यहाँ गम्योत्प्रेक्षा मी है। यह त्रपा-नाश नाम की सातवीं काम-दशा बताई गई है, किन श्लोक में नल के त्रपा-नाश की प्रत्यक्ष रूप से कोई बात नहीं कहो गई है। इसलिए ऐसा लगता है कि चिकित्सक लोग जब रोग-निदान न कर सके, तो निर्लज्ज होकर नल ने ही स्वयं उन्हें बताया कि घर का निदान भैमो-विरह है अतः चिकित्सकों को लज्जा आ गई कि नल के बताने से हो वे निदान कर सके, स्वयं नहीं, इस तरह लज्जा नल को छोड़कर चिकित्सकों में संक्रमित हो गई / संक्रामक रोग मो पुराने रोगी को छोड़कर दूसरे में चला जाता है / 'विश' 'विश' में छेक और अन्वत्र वृत्त्यनुप्रास है। बिभेति रुष्टासि किलेत्यकस्मात् स स्वां किलोपेत्य हसत्यकाण्डे / यान्तीमिव त्वामनु यात्यहेतोरक्तस्त्वयेव प्रतिवक्ति मोघम् // 112 // अन्वयः स ( हे भैमि ) त्वं रुष्टा असि किल इति अकस्मात् बिमति; स्वाम् आप किल इति अकाण्डे हसति, यान्तीम् इव त्वाम् अनु अहेतोः याति; स्वया उक्तः इव मोघम् प्रतिवक्ति /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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